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नियमसार - प्राभूतंम्
भगवन्तो वापि न प्रमाणत्वमर्हन्ति तैः प्रणीतं शास्त्रमपि तथैवाप्रमाणमेव ।
उक्तं च श्रीसमन्तभद्रस्वामिना -
स त्वमेवासि निर्दोष युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥६॥
दोषास्ताववज्ञान रागद्वेषादय उक्ताः । निष्क्रान्तेभ्यो दोषेभ्यो निर्दोषः । प्रमाणवलात् सिद्धः सर्वशो वीतरागश्च सामान्यतो यः सत्यमेवार्हन्, युक्तिशास्त्राविरोधवाक्त्यात् । यो यत्र युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् स तत्र निर्दोषो दृष्टः, यथा चिद् व्याध्युपशमे भिषग्वरः । इमानि सर्वज्ञवचनान्याश्रित्य यत् शास्त्रं तदेव जिनागमसंज्ञया निगद्यते ।
मुनि या भगवान् भी प्रमाणता को नहीं प्राप्त कर सकते हैं और उनके द्वार प्रणीत शास्त्र भी उसी प्रकार अप्रमाण ही हैं ।
श्री समंतभद्र स्वामी ने कहा है
वे आप ही निर्दोष हैं, क्योंकि आपके वचन युक्ति और शास्त्र के विरोध से रहित हैं और जो यह आपका अविरोध मल या शासन है, वह प्रसिद्ध- प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित नहीं होता ।
अज्ञान, राग, द्वेष आदि दोष कहे गये हैं । जो इन दोषों से रहित हो चुके हैं, प्रमाण के बल से सिद्ध हुये जो सामान्य से सर्वज्ञ वीतराग हैं, वे आप ही अर्हत हैं, क्योंकि आप युक्ति और शास्त्र से अविरोधी वचन वाले हैं। जो जहाँ पर युक्ति शास्त्र से अविरोधी वचन वाला है, वह वहाँ पर निर्दोष देखा जाता है । जैसे किसी व्याधि को दूर करने में उत्तम वैद्य ।
इन सर्वज्ञदेव के वचनों का आश्रय करके जो शास्त्र है, वहीं 'जिनागम' इस नाम से कहा जाता है ।
१. अष्टसहस्री कारिका ६ ।
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