Book Title: Niyamsara Prabhrut
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 577
________________ ५४६ नियमसार - प्राभृतम् हृस्य स्त्रीवर्गस्य चायिकावर्गस्य च । इतोऽस्मादन्यो ग्रन्थः कल्प्यते पठितुमस्वाध्या येऽन्यस्पुनः सूत्रं कालशुद्ध भावेऽपि युक्तं पठितुमिति ।।" अनेन यं भजति मर्हन्ति । पुराणग्रन्थेऽपि श्रूयते । तथाहि स्थापाले ताः आर्थिकाः सूत्रग्रन्थमपि पठितु "एकादशांग भृज्जाता साधिकापि सुलोचना " ।" त्रैलोक्येषु त्रैकाल्येष्वपि च सर्वोत्तममनुत्तरं लोकोत्तरं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसंज्ञकं त्रिरत्नमेव । अत्र नियमसारप्राभृतग्रंथ व्यवहारनिश्चयरत्नत्रयं तस्य फलं च वणितमस्ति । अस्य ग्रन्थस्य रचयितारः परमकेवलिदेवाधिदेवतीर्थंकर सीमंधर भगवतां साक्षाद्दर्शनकर्तारो मूलसंघस्याद्यनेतारी गुरूणां गुरवः श्रीकुंदकुंबदेवाः क्व ? तेषामेव शास्त्रेभ्य ईषल्लथमात्रं शब्दज्ञानं संप्राप्यात्पशाहं क्व ? तथापि या मया टोकारचनाकृता, सा निजात्मतत्त्वभावनायें एव । अनया निजभावनया जीवनमरणसुखसुः खलाभा सूत्र ग्रंथों का स्वाध्याय करना युक्त नहीं है, किन्तु इन सूत्र ग्रंथों से अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों को काल-शुद्धि आदि के अभाव में भी पढ़ा जा सकता है । इस कथन से यह स्पष्ट है कि स्वाध्याय काल में वे आर्यिकायें सूत्र-ग्रन्थ भी पढ़ सकती हैं । पुराण ग्रन्थ में भी सुना जाता है । उसे हो कहते हैं- "वे सुलोचना आर्यिका भी ग्यारह अंग के ज्ञान को धारण करने वाली हो गई । " तीनों लोकों और तीनों कालों में भी सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र नामक तीन रत्न ही हैं । इस नियमसार प्राभृत ग्रन्थ में व्यवहारनिश्चय रत्नत्रय और उसके फल का वर्णन किया गया है । इस ग्रंथ के रचयिता, परमकेवली देवाधिदेव तीर्थंकर सांमंधर भगवान् के साक्षात् दर्शन करने वाले, मूलसंघ के आद्य नेता, गुरुओं के गुरु, गुरुवयं श्री कुन्दकुन्द - देव कहाँ ? और उनके ही शास्त्रों से किंचित् लवमात्र शब्दज्ञान प्राप्त करके अल्पज्ञ मैं कहाँ ? फिर भो जो मैंने यह टीका की रचना की है, वह अपनी आत्मतत्त्व की १. हरिवंशपुराण, सर्ग १२, श्लोक ५२ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609