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नियमसार - प्राभृतम्
हृस्य स्त्रीवर्गस्य चायिकावर्गस्य च । इतोऽस्मादन्यो ग्रन्थः कल्प्यते पठितुमस्वाध्या येऽन्यस्पुनः सूत्रं कालशुद्ध भावेऽपि युक्तं पठितुमिति ।।"
अनेन यं भजति
मर्हन्ति । पुराणग्रन्थेऽपि श्रूयते । तथाहि
स्थापाले ताः आर्थिकाः सूत्रग्रन्थमपि पठितु
"एकादशांग भृज्जाता साधिकापि सुलोचना " ।"
त्रैलोक्येषु त्रैकाल्येष्वपि च सर्वोत्तममनुत्तरं लोकोत्तरं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसंज्ञकं त्रिरत्नमेव । अत्र नियमसारप्राभृतग्रंथ व्यवहारनिश्चयरत्नत्रयं तस्य फलं च वणितमस्ति ।
अस्य ग्रन्थस्य रचयितारः परमकेवलिदेवाधिदेवतीर्थंकर सीमंधर भगवतां साक्षाद्दर्शनकर्तारो मूलसंघस्याद्यनेतारी गुरूणां गुरवः श्रीकुंदकुंबदेवाः क्व ? तेषामेव शास्त्रेभ्य ईषल्लथमात्रं शब्दज्ञानं संप्राप्यात्पशाहं क्व ? तथापि या मया टोकारचनाकृता, सा निजात्मतत्त्वभावनायें एव । अनया निजभावनया जीवनमरणसुखसुः खलाभा
सूत्र ग्रंथों का स्वाध्याय करना युक्त नहीं है, किन्तु इन सूत्र ग्रंथों से अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों को काल-शुद्धि आदि के अभाव में भी पढ़ा जा सकता है ।
इस कथन से यह स्पष्ट है कि स्वाध्याय काल में वे आर्यिकायें सूत्र-ग्रन्थ भी पढ़ सकती हैं ।
पुराण ग्रन्थ में भी सुना जाता है । उसे हो कहते हैं-
"वे सुलोचना आर्यिका भी ग्यारह अंग के ज्ञान को धारण करने वाली हो गई । "
तीनों लोकों और तीनों कालों में भी सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र नामक तीन रत्न ही हैं । इस नियमसार प्राभृत ग्रन्थ में व्यवहारनिश्चय रत्नत्रय और उसके फल का वर्णन किया गया है ।
इस ग्रंथ के रचयिता, परमकेवली देवाधिदेव तीर्थंकर सांमंधर भगवान् के साक्षात् दर्शन करने वाले, मूलसंघ के आद्य नेता, गुरुओं के गुरु, गुरुवयं श्री कुन्दकुन्द - देव कहाँ ? और उनके ही शास्त्रों से किंचित् लवमात्र शब्दज्ञान प्राप्त करके अल्पज्ञ मैं कहाँ ? फिर भो जो मैंने यह टीका की रचना की है, वह अपनी आत्मतत्त्व की १. हरिवंशपुराण, सर्ग १२, श्लोक ५२ ।