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नियमसार -प्राभृतंम्
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लाभेष्टवियोनानिष्ट संयोगनिन्दाप्रशंसादिषु भावितः समभावः स्थैर्यं लभेताना - विद्यावासनोद्भूतार्तरौद्रदुर्ष्यानानि चामूलचूलं व्रजेयुः । ईदृग्भावनयैवेयं रचना, न च ख्यातये विद्वत्ताप्रदर्शनार्थ था ।
किच--- सिद्धांत न्यायव्याकरणादिज्ञानं मे नास्ति । आबाल्यादद्यावधि घसेंकथानक पद्मनंदिपंचविशतिकाप्रभूतिच्चतुरनुयोगसंबंध्यमेकग्रन्थाध्ययनाध्यापनस्वाध्यायेन चारित्राराधनाकाले गुरुपरम्परयार्थावबोधनेन स्वानुभवेन च यत्किमपि लवमात्र समीचीनज्ञानं मया लब्धम्, तदनुसारेणैव पूर्वाचार्याणां शास्त्रमहार्णवाद् वचनामृतकणान् उद्धृत्योद्धृत्य निजनोरसवचनेषु मध्ये मध्ये मिश्रयित्वा कानिचिद् अर्णपद
क्यानि मया योजितानि । अस्मिन् यावन्ति पूर्वापराविरुद्ध सूक्तिपदानि दृश्येरन् तेषु पूर्वाचार्याणां दीक्षाशिक्षागुरूणां व प्रभावं ज्ञात्वा विद्वदुद्भिस्तद्गुणा एव ग्रहीतव्याः । पुनश्चात्र यत्र कुत्रचिदपि स्खलनं दृश्येत, तर्हि ममाल्पज्ञताया दोषमव
भावना के लिये ही की है। इस निजतत्त्व की भावना से जोवन-मरण, सुख-दुःख, लाभ - अलाभ, इष्टबियोग, अनिष्ट संयोग और निन्दा - प्रशंसा आदि में भाया गया समभाव स्थिरता को प्राप्त होवे और अनादि अविद्या वासना से उत्पन्न हुये आर्तरौद्र दुर्ध्यान जड़मूल से निर्मूल हो जायें, ऐसी भावना से ही यह रचना की है, न कि ख्याति के लिये या विद्वत्ता दिखलाने के लिये ।
दूसरी बात यह है कि सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण आदि का ज्ञान मुझे नहीं है । बचपन से लेकर आज तक भी जो मैंने धर्मकथायें, पद्मनंदिपंचविशतिका से लेकर चारों अनुयोगों सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन और स्वाध्याय से, चारित्राराधना के काल में आर्यिका के जीवन में गुरुपरम्परा से प्राप्त हुये शास्त्र के ज्ञान से और स्वानुभव से जो कुछ भी लवमात्र समोचीन ज्ञान प्राप्त किया है, उसी के अनुसार पूर्वाचार्यों के शास्त्र महासमुद्र से वचन अमृतरूपी कणों को निकाल निकाल कर अपने नीरस वचनों को बीच बीच में मिलाकर कुछ वर्ण पद वाक्यों को मैंने बनाया है। इसमें जितने भी पूर्वापर अविरुद्ध अच्छे अच्छे पद दिखते हैं, उनमें पूर्वाचार्यों के और दीक्षागुरु, शिक्षागुरुओं के प्रभाव को जानकर विद्वानों को वे गुण ही ग्रहण करना चाहिये । और पुन: इसमें यदि कहीं भी स्वलन दिखे तो मेरी अल्पज्ञता का दोष समझकर उसे छोड़ देना चाहिये । इसमें पुनः पुनः जो