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नियमसार-प्राभृतम् णिहिट्ठ-निर्दिष्टं प्रतिपादितम् । केन निर्दिष्टम् ? मया श्रीकुदकुददेवेन । कि किं तत् ? णियमं णियमस्स फल-नियमो भेवाभेवरत्नत्रयस्वरूपो मोक्षमार्गो नियमस्तस्य मार्गस्य फलं निर्वाणं मोक्षश्चापि । केन हेतुना निर्दिष्टम् ? पवयणस्स भत्तीए-प्रवचनस्य जिनेंद्र देवस्य प्रकृष्ट दिव्यध्वनिरूपं वचनं तस्य भक्त्या एव मया एतत् कथितं न चान्येन केनापि हेतुना। जदि पुवावरविरोधो-याप भवानस्माकं प्रमाणम् भवद्वाक्यमपि प्रमाणम्, तथापि अस्मिन् ग्रन्थे कश्चिद् दोषो भवेत्तहि कि कर्तव्यम् ? अथ किम् ? छद्मस्थोऽहमतो यदि कदाचित पूर्वापरविरोधो दोषो भवेत् । समयण्हा अवणीव पूरयंतु-तहि समयज्ञा मदपेक्षयापि ये केचिवधिका विद्वांसो मुनयः, त एव तं पूर्वापरविरोषमपनीय दूरीकृत्य पूरयन्तु इम ग्रन्थं संशोध्य शुद्धं कुर्वन्तु । न च मदपेक्षयाऽल्पज्ञाः साधनो विपश्चितो वा ।
इतो विस्तर:---येषां वचनं पूर्वापरविरोधि वर्तते, ते वक्तारो मुनयो इसमें यदि पूर्वापर विरोध हो तो (अवणीय समयण्हा पूरयंतु) उन दोषों को दूर कर समय के ज्ञाता महामुनि पूर्ण करें।
टीका-मुझे श्री कुन्दकुन्ददेव ने भेद अभेद रत्नत्रयस्वरूप, जो कि मोक्ष मार्ग नाम से प्रसिद्ध है, उस नियम का और नियम के फलस्वरूप मोक्ष का भी प्रतिपादन किया है।
शंका-किस हेतु से कहा है ?
समाधान-प्रवचन, अर्थात् जिनेंद्रदेव के प्रकृष्ट दिव्य-ध्वनिरूप वचन की भक्ति से ही मैंने कहा है, न कि अन्य किसी हेतु से।
शंका—यद्यपि आप हम लोगों के लिये प्रमाण हैं, आपके वचन भी हमें प्रमाण हैं, फिर भी इस ग्रन्थ में कोई दोष होवे तो क्या करना ? ___समाधान–हाँ, मैं छद्मस्थ हूँ, इसलिये यदि कदाचित् इसमें पूर्वापरविरोध दोष होवे, तो समय के ज्ञाता-जो कोई मेरी अपेक्षा भो अधिक विद्वान् मुनिजन हों, वे ही उस पूर्वापरविरोध को दूर कर पूर्ण करें-इस ग्रन्थ का सशोधन करके शुद्ध करें, न कि मेरी अपेक्षा अल्पज्ञ साधु या विद्वान् ।
इसी का विस्तार कहते हैं जिनके बचन पूर्वापरविरोधी हैं, वे वक्ता