Book Title: Niyamsara Prabhrut
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 574
________________ नियमसार- प्राभृतम् ५४३ गाथासूत्रं संगृहीतम्, प्रत्युत मयैव रचितम् । कस्याधारं गृहीत्वा इदं कृतम् ? जिणोवदेसं - जिनदेवस्य परमतोर्थंकर भट्टारकस्य उपदेशं उपदिष्टं शास्त्रं वा ज्ञात्वा गुरुसुखारविन्देः श्रुत्वा सुष्टुतयाऽवबुद्धध च । कथंभूतं जिनोपदेशं ज्ञात्वा ? पुत्रावरदोसणिम्मुक्कं - यः कश्विदुपदेशः पूर्वापरविरोवदोषेभ्यो निर्मुक्तो विरहितोऽनेकान्ता मकस्तम् । इतो विस्तरः --- श्रीकुंदकुंबदेवैः समयप्राभूत-नियमसारप्राभूतप्रभृतिचतुरशीसिप्राभृतप्रन्या रचितात्तथा षट्खण्डागमसूत्र ग्रन्थरा जस्याचस्य त्रिखण्डस्योपरि परिकर्मनाम्ना भाष्यरचनापि कृता । एतत् सांप्रतिका विद्वांसो मन्यन्ते । इमे देवा बृहच्चतु विवस वस्याविनायकाः विश्चासन् स्वपट्टे श्रीउमास्वामिनं' चातिष्ठपन्, ऊर्जयंतगिरियात्रायां श्वेतपटः सह वादविवादयोः संजातयोः स्वप्रभावेण पाषाणघटितामम्बिकादेवी मवादयन्। एतत्सर्वं गुर्वावलीप्रकरणेन विज्ञायते । अनेन निश्चीयते मैंने ( कुन्दकुन्द आचार्य ने) रचा है। अन्य द्वारा रचित गाथाओं का संग्रह नहीं किया है, प्रत्युत मैंने हो रचा है। यहां यह बात स्पष्ट हो जाती है कि परमतोर्थंकर भट्टारक जिनेंद्रदेव का उपदेश जानकर अथवा उनके द्वारा उपदिष्ट शास्त्र को जो किं पूर्वापर विरोध से रहित अनेकांत रूप है, उसको गुरु के मुखकमल से अच्छी तरह समझकर ही मैंने यह ग्रन्थ रचा है । इसी को कहते हैं-- श्री कुन्दकुन्ददेव ने समयसार - प्राभृत-नियमसार प्राभृत आदि चौरासी प्राभृत ग्रन्थ रचे हैं तथा षट्खंडागमसूत्र ग्रन्थ राज के आदि के तीन खंड के ऊपर 'परिकर्म' नाम से भाष्य रचना भी की है। ऐसा वर्तमान के विद्वान् मान रहे हैं। ये आचार्यदेव बहुत बड़े चतुर्विध संघ के अधिनायक आचार्य थे। इन्होंने अपने पट्ट पर श्री उमास्वामी को स्थापित किया था । ऊर्जयंत पर्वत की यात्रा में श्वेताम्बरों के साथ वाद-विवाद हो जाने पर आपने अपने प्रभाव से पाषाण से बनी हुई अंबिका देवी को बुलवाया था । यह सब गुर्वावली के प्रकरण से जाना जाता है । ९. नंदिसंघ की पट्टावली में – १ – भद्रबाहु द्वितीय (४), २ - गुप्तिगुप्त ( २६) माधवी ( ३६ ), ४- जिनचंद्र (४०), ५ कुंदकुन्दाचार्य (४९ ६ - उमास्वामी (१०१ ) इत्यादि क्रम दिया है। देखिये तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा, पुस्तक ४, पृ० ४४१ | २. कुन्दकुन्दराणी मनोज्जयं गिरिमस्तके | सोऽयदाद्वादिता ब्राह्मीपाषाणघटिता कलौ ||१४|| पांडव०, ५०२)

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