Book Title: Niyamsara Prabhrut
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 572
________________ नियमसार-प्राभृतस् तात्पर्यमेतत्-इत्थंभूतं सार्वमनुत्तरं जिनशासनं द्विविधधर्मस्वरूपं महत्पुण्ययोगेन लब्ध्वाप्ताभिमानदग्धबाह्य जनानामसूयकानां वा वचनं श्रुत्वा तस्मिन् स्वस्य तात्पर्य यह हुआ कि इस प्रकार के सभी के लिये हितकर सर्वश्रेष्ठ, द्विविध धर्मस्वरूप जिनशासन को महान पुण्य योग से प्राप्त करके, आप्त के अभिमान से दग्ध हुये ऐसे बाह्य जनों के, अथवा निदक जनों के बचन सुनकर आपको जैनमत से अपनी भक्ति, श्रद्धा और प्रीति नहीं हटाना चाहिये और न प्रमाद ही करना चाहिये। भावार्थ--भगवान् महावीर देव, असुर, मनुष्य आदि सभी प्राणियों की आगति, गति आदि सब कुछ जानते हैं और देखते हैं। उनमें से आगति आदि के अर्थ को कहते हैं-- १. आगति-अन्य स्थान से अन्य मति से यहाँ आना । २. शि-..यहाँ म पनुष्यादि पाय से अन्यत्र जाना। ३. च्यवन-किसी भी पर्याय से या देवपर्याय से च्युत होना । ४. उपपाद-जन्म लेना या देव-नारक में उपपाद शय्या से जन्म लेना । ५. बंध----कर्मों का बंध । ६. मोक्ष--कर्मों का मोक्ष । ७. ऋद्धि-चक्रवर्ती तथा सौधर्म देवादिकों की ऋद्धि । ८. स्थिति--आयु स्थिति। ९. द्युति---कांति। १०. अनुभाग--कर्मों के फल देने की सामर्थ्य । ११. तर्क--तर्कशास्त्र-न्याय ग्रंथ । १२. कला--बहत्तर कला या गणित विद्या । १३. मन--परकीय चित्त । १४. मानसिक-मन की चेष्टा । १५. भूत--पूर्व अनुभूत । १६. कृत-पूर्व कृत। १७. प्रतिसेक्ति--पुनः सेवित । १८. आदिकर्म--कर्मभूमि के अनुप्रवेश में प्रथमतः प्रवृत्त असि, मषि आदि कर्म।

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