Book Title: Niyamsara Prabhrut
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 571
________________ नियमसार-प्रामृतम् उक्तं च श्रीगौतमस्वामिभि: "सूत्र मे आउस्मतो ! इह खलु समणेण भगवदा महदिमहावीरेण महाकस्सवेण सखण्हुणा सध्यलोगधरिसिणा सदेवासुर माणुसस्स लोयस्स आगविगविचवणोषवावं बंध मोक्ख इडिं ठिदि अणुभार्ग तर्फ कलं मणोमाणसियं भूतं कयं पडिसेवियं आदिकम्मं अरूहकम्म सम्वलोए सव्वजीवे सत्वं समं जाणंता परसंता विहरमाणेण समणाणं पंचमहब्बदाणि राईभोयणवेरमणछठाणि सभावणाणि समाउगवचाणि सउत्तरपवाणि सम्म धम्म उपदेसिवाणि।" पुनश्च "पढम साध सुदं मे आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा महदिमहावीरेण महाफस्सवेण सध्यण्हणाणेण सवलोयदरिसिणा सावधाणं सावियाणं खुढयाणं खुडियाणं कारणेण पंचाणुव्वदाणि तिपिण गुणवदाणि चत्तारि सिक्खाववाणि वारसविहं निहत्थषम्म सम्म उववेसियाणि ।" ऐसा श्री गौतमस्वामी ने कहा है-- "हे आयुष्मान् भव्यो ! इस भरत क्षेत्र में देः, सर दर गनुओं सहित प्राणीगण को आगति, गति, च्यवन, उपपाद, बंध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, द्युति, अनुभाग, तर्क, कला, मन, मानसिक, भूत, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरूहकर्म-इनको और तीन सौ तैतालीस रज्जुप्रमाण लोक में सब जीवों, सब भावों और सब पर्यायों को एक साथ जानते हुये, देखते हुये तथा विहार करते हुये, काश्यपगोत्रीय, श्रमण, भगवान्, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, महति महावीर अंतिम तीर्थंकर परमदेव ने पच्चीस भावनाओं सहित, मातृकापदों सहित और उत्तरपदों सहित रात्रि भोजन विरमण है छठा अणुव्रत जिनमें, ऐसे पाँच महाव्रतों रूप समीचीन धर्मों का उपदेश दिया है, वह मैंने उनको दिव्यध्वनि से सुना है।" पुनः कहते हैं हे आयुष्मंतो ! प्रथम ही मैंने सुना है। महाकश्यपगोत्रीय, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, श्रमण, भगवान् महावीर से श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं के लिये पाँच अणुव्रत, तोन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त-यह बारह प्रकार का गृहस्थ धर्म सुना है। १. बृहद् पतिप्रतिक्रमणसूत्र । २. बृहद् यतिप्रतिक्रमणसूत्र ।

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