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नियमसार-प्राभूतम्
उक्तं च तत्रैव महाशास्त्रे
गोदममुणिपछुदीर्ण पासाणं छस्सदाणि तेसोदी ॥१४९२॥ सोर नस्सं तिला मसारस बच्छराणि सुवतित्थं । धम्मपयट्टणहेदू वोच्छिस्सवि कालदोसेणं ॥१४९३॥
लेसियमेत्ते काले अम्मिस्सदि चाउवण्णसंघाओ'। ननु अद्यत्वे केवलिनामभावे उपलब्धागमस्तेषामेव पचनं प्रमाणत्वं कथं संभवेत् ? नैतत्सुष्टु, श्रीवीरसेनविद्यानंद्याचार्या धवलाटोकाविग्रन्थेषु महत्या श्रद्धया सूत्रग्रन्थान दिव्यध्वनिरूपान् मन्यन्ते ।
तथाहि-कस्यचित् शिष्यस्य प्रश्ने संजाते श्रीवीरसेनाचार्याः कथयन्ति"एवम्हादी विजलगिरिमत्थयत्थवढमाणदिवायरादो विणिग्गभिय गोवमलोहज्ज-जंबुसामियादिआइरियपरंपराए आगंसूण गुणहराहरियं पापिय गाहासरूयेण परिणमिय अज्जमखुणागहत्थीहितो मयिवसहमुहणयिय चुषिणसुत्सायारेण परिणवविधझुणिकिरणाबो णध्व।" ।
उसी तिलोयपणति महाशास्त्र में कहा है--
गौतममुनि आदि के काल का प्रमाण छह सौ तेरासी वर्ष होता है । जो श्रुततीर्थ धर्मप्रवर्तन का कारण है । वह बीस हजार तीन सो सत्रह वर्षों में काल दोष से व्युच्छेद को प्राप्त हो जायेगा। इतने मात्र समय में चातुर्वर्य संघ जन्म लेता रहेगा।
शंका-आजकल केबलियों के अभाव में जो आगम उपलब्ध हैं, उनके ही वचन प्रमाणभूत कैसे संभव हैं ?
समाधान—ऐसा कहना ठीक नहीं है, श्री वीरसेनाचार्य, श्री विद्यानंदी आदि आचार्यों ने धवला टोका आदि ग्रंथों से महती श्रद्धा से सूत्रग्रंथों को दिव्यध्वनिरूप माना है । उसे ही कहते हैं- यहाँ किसी शिष्य का प्रश्न होने पर श्री वोर. सेनाचार्य कहते हैं
"विपूलाचल के शिखर पर विराजमान वर्धमान दिवाकर से प्रगट होकर गौतमस्वामी, लोहाचार्य और जंबूस्वामी आदि की आचार्य परम्परा से आकर और गुणधर आचार्य को प्राप्त होकर गाथा स्वरूप से परिणत हो पुनः आयमा और नागहस्ती के द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त होकर और उनके मुखकमल से चूर्णिसूत्र के आकार से परिणत दिव्यध्वनिरूप किरण से जानते हैं । १. तिलोयपण्पत्ति, ५० ४ ।
२. कसायपाउसुत्त प्रस्तावना से, पृ० ११ ।