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नियमसार-प्राभृतम्
५३५ तात्पर्यमेतत्--अयं ग्रन्थः सर्वज्ञमुखोद्भूतदिव्यध्वनितदनुरूपगणधरप्रथिता. चारांगसूत्रपठितपूर्वाचार्यपरंपरानुस्यूतश्राकुक्कुंददेवरचितो निर्दोषोऽस्ति, तथापि यदि कश्चित् कुंवकुंददेवापेक्षयापि बहुश्रुतविद्वान् चरणकरणप्रवणो मुनिनायो भवेत् तस्यैवास्य संशोधनस्याधिकारो नान्येषामिति मत्वा पूर्वाचार्याणां वचनं "नद्या नवघटे जलमित्र" विश्वस्य प्रमाणीकर्तव्यम् ॥१८५॥ ____ इह जगति केचिज्जना जैनमतगघ्यवमन्यन्ते, हि कत्र पस्य भक्तिर्भवेविल्याशङ्कायामाचार्यदेवा
अवन्ति--
ईसाभावेण पुणो, केई जिंदंति सुंदरं मग्गं ।
तेसि वयणं सोच्चाऽभत्तिं का हुलह जिगसणे ॥१८॥
केई पुणो ईसाभावेण सुंदरं मग्गं णिदंति-केचित् मिथ्यात्वोदयनिमित्तेन कलुषितचित्ताः पुनश्च ईर्ष्याभावेन सुन्दरम् अनेकान्तस्वरूपं सार्वभौम जिनशासनं निन्दन्ति, तस्मिन् निर्दोषेऽपि दोषमुद्भावयन्ति, तेऽवर्णवादिनो दर्शनमोहस्य सप्तति
यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि यह ग्रन्थ सर्वज्ञ भगवान के मुखकमल से उत्पन्न हुई जो दिव्यध्वनि, उसके अनुरूप गणवरदेव द्वारा गंथे गये आचारांगसूत्र, उनको पढ़ने वाले पूर्वाचार्यों की परंपरा से अनुस्यूत-सहित है और श्री कुन्दकुन्ददेव रचित निर्दोष हैं। फिर भी यदि कोई कुन्दकुन्ददेव की अपेक्षा भी बहुश्रुत विद्वान्, चरण और करण में कुशल मुनिनाथ हों, उन्हें ही इस ग्रंथ के संशोधन का अधिकार है, अन्य जनों को नहीं, ऐसा मानकर पूर्वाचार्यों के वचनों को "मये घड़े में भरे हये गंगा नदी के जल के समान ही" विश्वास करके प्रमाण करना चाहिये ॥१८५।।
इस जगत् में कुछ लोग जैनमत का अपमान करते रहते हैं, तो पुनः इसकी भक्ति कैसे होवे ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव कहते हैं--
अन्वयार्थ (ईसाभावेण पुणो केई सुदरं मगं णिदंति) ई भाव से पुनः कोई सुन्दर जैन मार्ग की निदा करते हैं, (तेसि वयणं सोच्चा जिणमग्गे अत्ति मा कुणइ) उनके वचन सुनकर तुम जिन-मार्ग में अभक्ति मत करो।
टोका---कोई लोग मिथ्यात्व के उय से कलुषित चित्त हुये ईर्ष्याभाव से सुन्दर, अनेकांतस्वरूप, सार्वभौम जिनशासन की निंदा करते हैं, उस निर्दोष शासन में भी दोष प्रगद करते हैं, वे अवर्णवाद करने वाले लोग दर्शन मोहनीय की सत्तर