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नियमसार-प्राभृतम्
५२९ यवि कदाचित् त्रैलोक्यसमा अनन्तानन्ता अपि लोका अभविष्यन्, तहि ततः पर्यन्तमगमिष्यन् । एतत्कथं ज्ञायते ?
___अनया गाथया एव ज्ञायते । किच, एतद् हेतुवाक्यं वर्तते "धर्मास्तिकायाभावात इति" । अन्यथा आमार्याः स्वयमकथयन्-"तेषामुपरि गमनयोग्यताभावात्" किंतु नतद्वाक्यं कस्मिश्चिदागमे लभ्यते। अन्यच्च, न इमे धर्माधर्मद्रव्ये बलपूर्वकं जीवपुद्गलयोः गतिस्थिती कारयतः, प्रत्युत उदासीनतया सहकारिमात्रमेव ।
___ तात्पर्यमेतत्-ये केचिन्महापुरुषाः प्राग मुनिलिंगावस्थायां परद्रव्यानिमित्तोइभत सायकलाविज्ञानमाले विहाय केबलतानदर्शनसुखवीर्यादिगुणोपेतमास्मान ध्यायन्तो वृष्टास्तुष्टा बभूवः, त एव शुद्धाः सिद्धा नित्यनिरंजना भूस्वा उपचारेण धर्मद्रव्य
समाधान--महान् दोष है, क्योंकि ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने से उनके गमन की योग्यता तो है । यदि कदाचित् त्रैलोक्य के समान अनंतानंत भी लोक हो जावे, तो इन सिद्धों का वहाँ पयंत भी गमन हो जावे ।
शंका--यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान--इस गाथा १८४ से ही जाना जाता है, क्योंकि यह हेतुवाक्य है । 'धर्मास्तिकाय का अभाव होने से' सूत्रकार श्री उमास्वामी ने भी अपने इस सूत्र में पंचमी विभक्ति से हेतु वाक्य सूचित किया है ।
यदि ऐसा न होता, तो आचार्य स्वयं कह देते कि "उन सिद्धों के ऊपर गमन की योग्यता का अभाव है", किंतु ऐसा वाक्य किसी भी आगम में नहीं पाया जाता।
दूसरी बात यह है कि ये धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य बलपूर्वक जीव और पुद्गल की गति और स्थिति नहीं कराते हैं, प्रत्युत उदासीन रूप से गमन करते और ठहरते हुये द्रव्यों के सहायकमात्र ही हैं।
यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि जो कोई महापुरुष पहले मुनिपद की अवस्था में पर द्रव्य के निमित्त से उत्पन्न हुये सर्व संकल्प विकल्प समूह को छोड़कर केवल ज्ञान दर्शन सुख वीर्य आदि गुणों से सहित आत्मा का ध्यान करते हुये हर्षित और संतुष्ट हो चुके हैं, वे ही शुद्ध सिद्ध नित्य निरंजन होकर उपचार से धर्म द्रव्य के १. तत्वार्थमूत्र, अ० १०, सूत्र ८ ।
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