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नियमसार - प्राभृतम्
तात्पर्यमेतत् - निर्वाणक्षेत्रस्थिताः सर्वेऽपि सिद्धाः अभेदनयेन निर्वाणस्वरूपा एव, निर्वाणं चापि सिद्धस्वरूपमेवेति ज्ञात्वा प्रारम्भावस्थायां भेदरूपेण सिद्धान् ध्यायद्भिः पुनः अभेदरूपेण स्वात्मसिद्धयोः भेदमकृत्वा सिद्धा मत्सदृशा, अहं सिद्धसवृशः, सिद्धोऽहमित्यादिविकल्पशून्यैः सद्भिः सिद्धस्वरूपस्वात्मतत्वेऽस्माभिः स्थातव्यम् ॥१८३॥
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ऊर्ध्वगमनस्वभावत्वात् तं सिद्धा लोकाग्राद् बहिरनोकाकाशे कथं न गच्छन्तीत्याशंकायामाचार्याः प्राहु:
जीवाण पुग्गलाणं गमणं जाणेह जाव धम्मत्थी । धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छति ||१८४ ॥
जीवाण पुग्गलाणं जाव धम्मत्थी गमणं जाणेइ सर्वसंसारिणां मुक्तानामपि जीवानां सर्वपरमाणु स्कंध भेदयुक्त पुद्गलानां च यावद् धर्मास्तिकायो वर्तते, सावत्पर्यन्तमेव गमनं जानीहि त्वम् । धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छंति-धर्मास्तिकायद्रव्यस्याभावे ते जीवाः पुद्गलाश्च ततः परतो लोकाकाशाद् बहिर्न
गच्छन्ति ।
तात्पर्य यह है कि निर्वाण क्षेत्र में स्थित सभी सिद्ध अभेदनय से निर्वाण स्वरूप ही हैं और निर्वाण भी सिद्ध स्वरूप ही है, ऐसा जानकर प्रारम्भ अवस्था में भेद रूप से सिद्धों का ध्यान करते हुए पुनः अभेदरूप से अपनो आत्मा और सिद्धों में भेद नहीं करके "सिद्ध मेरे समान हैं, में सिद्ध समान हूँ या में सिद्ध हूँ" इत्यादि विकल्पों से शून्य होकर सिद्धस्वरूप अपने आत्मतत्व में हम सभी को स्थित होना चाहिये || १८३ ॥
ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने से वे सिद्ध भगवान् लोक के अग्रभाग से बाहर अलोकाकाश में क्यों नहीं जाते ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव कहते हैं
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अन्वयार्थ - - ( जीवाण पुग्गलाणं गमणं जाव धम्मत्थी जाणेइ) जीवों और पुगलों का गमन जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, वहीं तक जानो । ( धम्मत्यिकायभावे तत्तो परदोण गच्छति ) धर्मास्तिकाय के अभाव में उसके बाहर नहीं जाते हैं ।
टीका -- सभी संसारी जीव और मुक्त जीवों का भी तथा सर्व परमाणु और स्कंध भेदरूप पुद्गलों का भी गमन जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, उतने पर्यंत ही जानो ।
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