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नियमसार-प्राभृतम् ननु जीवानामसंख्यातप्रदेशिनामपि कर्मणो निमित्तेन शारीरप्रमाणं संकोचविस्तारौ भवतः, पुनः कर्मणामभावे अन्तिमशरीरप्रमाणप्रदेशिन आत्मानस्तत्रैव तिष्ठेयुः, कथमध्वं गच्छंति ? नैतद्वक्तव्यम् "विस्ससोड्ढ़ गई" इति सूत्रवाक्यात् विनसा स्वभावेनवेमे ऊर्ध्व गच्छन्ति । अथवा संस्कारवशाच्चापि पूर्व ध्यानावस्थायां महामुनयो रूपस्थध्याने चितयन्ति, यत् पिठस्थध्यानान्तर्गतो ममात्मा पंचविषधारणाभिः शुद्धयन् अस्मात् भूतलात् पंवसहस्रधनूषि उपरि गत्वा समवसरणे स्थित्वा भगवान् केवलो जातः । पश्चात् रूपातीतध्याने चिन्तयन्ति ममात्मा एकसमयमात्रेणैव सिद्धशिलाया उपरि लोकान्तं संप्राप्य सिद्धोऽभवत् । इत्थं पुनः पुनरभ्यासबलेनोर्ध्वगमनसंस्कारो दृढीभवति ।
उक्त च श्रीमदुमास्वामिभिः
पूर्वप्रयोगावसंगत्याद बन्धच्छेवात्तथागतिपरिणामाच्च ॥६॥
शंका--असंख्य प्रदेशी भी जीवों का कर्मनिमित्त से शरीर प्रमाण संकोच और विस्तार होता है, तो पुनः कर्मों का अभाव हो जाने पर अंतिम शरीरप्रमाण प्रदेशवाले आत्मा को वहीं ठहर जाना चाहिये, वे ऊपर कैसे जाते हैं ?
___ समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि "बिस्ससोड्ढ गई" जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव है, इस सूत्र वाक्य से स्वभाव से ही वे सिद्ध भगवान् ऊपर को गमन कर जाते हैं। अथवा संस्कार के वश से भी ऊर्ध्वगमन करते हैं । महामुनि पहले ध्यान अवस्था में रूपस्थ ध्यान में चितवन करते हैं कि पिंडस्थ ध्यान के अंतर्गत मेरा आत्मा पाँच प्रकार की धारणाओं से शुद्ध होता हुआ इस भूतल से पाँच हजार धनष ऊपर जाकर समवसरण में स्थित होकर भगवान् केवलो हो गया। अनंतर रूपातीत ध्यान में चितवन करते हैं कि मेरा आत्मा एक समय मात्र में ही सिद्धशिला के ऊपर लोक के अंतभाग को प्राप्त करके सिद्ध हो गया है। इस प्रकार पुनः पुनः अभ्यास के बल से ऊर्ध्वगमन का संस्कार दृढ़ हो जाता है।
श्रीमान् उमास्वामी आचार्य ने भी कहा है
पूर्व प्रयोग से, संगरहित हो जाने से, बन्ध का छेद हो जाने से और वैसा ही ऊर्ध्वगमन परिणाम-स्वभाव होने से थे सिद्ध जीव ऊर्ध्वगमन करते हैं। पुनः इन चारों हेतुओं को दृष्टांत से समझाया है कि कुम्हार के घुमाये हुए चक्र के समान