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नियमसार-प्राभृतम् आविडकुलालचक्रवद व्यपगतलेपालाबुवदेरगडबीजवग्निशिखायच्च ॥७॥
अध कार्तिककृष्णामावस्यायाममुध्यामुषावेलायां पावापुर्याः सरोवरमध्यात् भगवान महावीरस्वामी अवशेषकर्माणि निर्मूल्य निर्वाणपदवीमवाप । तथाहि उक्तं श्रीपूज्यपाददेवेन
पावापुरस्य बहिन्नतभूमिदेशे,
पोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये। श्रीवर्द्धमानजिनदेव इति प्रतोतो,
निर्वाणमाप भगवान् प्रविधूतपाप्मा। निर्वाणगतस्यास्य भगवतोऽद्य द्विसहस्रपंचशतदशवर्षाणि अभूषन् ।
तस्य प्रभोनिर्वाणकल्याणकपूजां कृत्वा देवेन्द्रः प्रज्वलितदीपमालिकाभिः पावापुरी प्रकाशयुक्ता कृता । ततः प्रभृत्यधावधि अस्यार्यखंडस्य वसुन्धरायां सर्व संप्रदायिनो जना अद्य दीपमालिकारात्री दीपावली प्रज्वाल्य सर्वोत्तम पर्व मन्यन्ते । पूर्व प्रयोग से, अलाबु-तूमड़ी का लेप निकल जाने पर जैसे वह नदी में ऊपर आ जाती है, ऐसे ही संग-परिग्रह शरीर आदि के छूट जाने से, एरंड का बीज जैसे चटकते ही ऊपर उछल जाता है वैसे ही बन्ध का छेद हो जाने से और अग्नि की लो जैसे ऊपर जाती है, वैसे ही ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने से ये सिद्ध परमात्मा ऊपर को गमन करते हैं।
____ आज कार्तिक कृष्णा अमावस्या की इस उषा वेला में पावापुरी के सरोबर के मध्य से भगवान महावीर स्वामी ने शेष अघाति कर्मों का निर्मूलन करके निर्वाणपद को प्राप्त किया था । ऐसा ही श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा है
__पावापुरी के बाहर उन्नत भूमिप्रदेश में अनेक खिले हुए कमलों से सहित सरोवर है, उसके मध्य स्थित हुए भगवान् बर्द्धमान जिनेंद्रदेव ने कर्मों का नाश कर निर्वाण को प्राप्त किया है !
निर्वाण को प्राप्त हुए आज इन भगवान् को दो हजार पाँच सौ दस वर्ष हुए हैं। उन प्रभु की निर्वाणपूजा को करके देवेन्द्रों ने प्रज्वलित दीपमालिकाओं से पावापुरी को प्रकाशयुक्त कर दिया था। तब से लेकर आज तक इस आर्यखंड की
१. तत्त्वार्थसूत्र, अ० १० । २. निर्वाणभक्ति, संस्कृत ।
३. तिलोयपण्णसि, अ० गाथा ।