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नियमसार -प्राभूतम्
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विद्यन्ते । ये तीर्थंकरा गृहस्थाश्रमेऽपि मातापितरौ न प्रणमन्ति, दिगम्बरसुनीनामपि नमस्कारं न कुर्वन्ति, तेऽपि तान् सिद्धपरमेष्ठिनः सततं नमस्कुर्वन्ति । दीक्षाकाले "नमः सिद्धेभ्यः" इत्युक्त्वा तान्तिकलपरमात्मनो नमस्कृत्य अन्यदीक्षागुरुमन्तरेणैव atri गृह्णन्ति । मन:पर्ययज्ञानिनो भूत्वाऽपि तान् ध्यायन्त एव सिध्यन्ति । एतावृशानां सिद्ध भगवतां नामस्मरणमपि मंत्र एवासौ सर्वकार्यसिद्धयर्थममोघशक्तिः । पूर्वाचार्या ग्रंथरचनायाः प्रारम्भे मंगलाचरणमकृत्वापि "सिद्धो वर्णसमाम्नायः” “सिद्धिरनेकान्तात्” इति सूत्ररचनया ग्रन्थमरचयन् । इति ज्ञात्वाऽस्माभिरपि “ॐ नमः सिद्ध ेभ्यः", "सियन" "सिद्ध नमः" "सिद्ध" इत्यादिमंत्राः सततं स्मर्तव्या जपनीया वचनेनोच्चारणीयाश्च स्वात्मसिद्धये ।। १८२ ॥
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जो तीर्थंकर देव गृहस्थाश्रम में माता-पिता को प्रणाम नहीं करते हैं, दिगम्बर मुनियों को भी नमस्कार नहीं करते हैं, ये भी उन सिद्ध परमेष्ठी को सतत नमस्कार करते हैं । वे दीक्षा के समय 'नमः सिद्धेभ्य:' ऐसा उच्चारण कर उन निकलशरीर रहित परमात्मा को नमस्कार करके अन्य दीक्षा गुरु के ग्रहण करते हैं । मन:पर्ययज्ञानी होकर भी उन सिद्धों का ध्यान सिद्ध होते हैं ।
बिना हो दीक्षा करते हुये ही
ऐसे उन सिद्ध भगवान् का नामस्मरण भी मंत्र ही है । यह नाम मंत्र सर्व कार्यों की सिद्धि के लिये अमोघ शक्ति है ।
१. कातंत्र व्याकरण २. जैनेन्द्रप्रक्रिया |
पूर्व के आचार्यगण ग्रन्थरचना के प्रारम्भ में मंगलाचरण नहीं करके भी "सिद्धो वर्णसमाम्नायः " वर्णों का समुदय अनादि काल से सिद्ध है, "सिद्धिरनेकान्तात् " अनेकान्त से शब्दों की सिद्धि होती है, इस प्रकार के सूत्रों द्वारा ग्रंथों को रचा है, ऐसा जानकर हम लोगों की भी "ओम् नमः सिद्धेभ्यः " ( ओम् सिद्धाय नमः सिद्धं नमः और सिद्ध) इत्यादि मंत्रों का अपनी आत्मा को सिद्धि के लिये सतत स्मरण करना चाहिये, जपना चाहिये और वचनों से उच्चारण करते रहना चाहिये ।। १८२ ॥