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'नियर्मसारे-प्रभूतम्
मच्छति, न च मध्ये क्वचित् स्थाने तिष्ठति, उपरि अलोकाकाशेऽपि वा न प्रयाति | लद्यआ - - अनन्तानन्ताकाशमध्येऽयं लोकाकाशः पुरुषाकारो वर्तते । तलभागे 'पूर्व-पश्चिमयोः सप्त रज्जु -विस्तारोऽस्ति । ततश्च हीयमानो सप्तरज्जुप्रमाणस्योपरि आगत्य रज्जुप्रमाणं विस्तार:, पुनश्चोपरि वर्धमानो ब्रह्मलोकस्य निकटे पंचरज्जुः भूत्वा पुनरपि हीयमानो लोकाने एकरज्जुविस्तार एव । अस्य लोकस्योच्चत्वं चतुर्दशरज्जुप्रमाणम् । दक्षिणोत्तरविस्तारोऽस्य सर्वत्र सप्तरज्जुरेव । अस्मिन् लोकाकाशे चतुर्दशरज्जुभुंगा एकरज्जुविस्तृता श्रसनाली वर्तते । अस्मिन् लोके मध्यलोकस्य विस्तारः एक रज्जुप्रमाणमेव तत्रापि मर्त्यलोक: पंचचत्वारिंशल्लक्षयोजनविस्तृतो वलयाकारोऽस्ति । मध्यलोकस्य तुंगत्वं सुमेरुप्रमाणमेव । अस्य लोकाकाशस्य मस्तके ईषत्प्राग्भारा नामाष्टमी पृथिवी वर्तते । तस्या उपरि अर्धचन्द्राकारा छत्राकारा उत्सानचेषकसवृशी वा मर्त्यलोकप्रमाणा सिद्ध शिलाऽस्ति । अस्था उपरि तनुवातवलयस्पान्ते सिद्धानां निवासोऽस्ति ।
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चले जाते हैं, मध्य में किसी स्थान पर भी नहीं ठहरते हैं और ऊपर इसके आगे अलोकाकाश में भी नहीं जाते हैं ।
उसे ही कहते हैं --- अनंतानंत आकाश के ठीक बीच में यह लोकाकाश पुरुषाकार है | यह नीचे तलभाग में पूर्व-पश्चिम में सात राजु विस्तृत है, पुनः घटते हुये सात राजु तक ऊपर आकर एक राजु प्रमाण विस्तृत रह गया है । इसके बाद ऊपर बढ़ते हुये ब्रह्मलोक – पाँचवें स्वर्ग के पास पाँच राजु होकर पुनः घटते हुये लोक के अग्रभाग पर एक राजु विस्तृत ही है । इस लोकाकाश की ऊँचाई चौदह राजु प्रमाण है । इसका दक्षिण-उत्तर विस्तार सर्वत्र सात राजु है । इस लोकाकाश में चौदह राजु ऊँची और एक राजु चौड़ी त्रस नाली । इस लोक में मध्यलोक का विस्तार भी एक राजु प्रमाण ही है । उसमें भी मनुष्य लोक पैंतालीस लाख योजन विस्तृत वलयाकार गोल है । मध्य लोक की ऊँचाई सुमेरु पर्वत की ऊँचाई के बराबर ही है । इस लोकाकाश के मस्तक पर ईषत्प्राग्भार नाम की आठवीं पृथ्वी है । उसके ऊपर अर्धचन्द्राकार, छत्राकार या उत्तान - सीधे रखे हुए कटोरे के सदृश मनुष्यलोक प्रमाण- पैंतालीस लाख योजन प्रमाण वाली चौड़ी सिद्धशिला है । इस सिद्ध शिला के ऊपर तनुत्रातवलय के अन्त में सिद्धों का निवास है ।
१. त्रिलोकसार, गाथा ५५८ को टीका में - उत्तान स्थित पात्रमिव जयकमिवेत्यर्थः ।