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नियमसार-प्रामृतम् निर्वाणसिद्धयोः किमन्सरमिति जिज्ञासायां वदरयाचार्यवर्याःणिव्वाणमेव सिद्धा, सिद्धा णिव्वाण मिदि समुद्दिहा। कम्मविमुक्को अप्पा, गच्छइ लोयग्गपज्जतं ।।१८३॥
णिवाणमेव सिद्धा-निर्वाणं यत् सवेव सिद्धाः । तथा च सिद्धा णिव्वाणंसिद्धा एव निर्वाणं नास्त्यनयोरन्तरं किंचित् । अत्र सिद्धिसिद्धयोरेकत्वं प्रवर्शितं भवति । अथवा सिद्धाः क्व तिष्ठन्तीति प्रश्ने निर्वाणस्थाने सिद्धक्षेत्रे वा तिष्ठन्ति इति भेदकथनं पुनश्चाभेवकथनेन सिद्धाः स्वेषु तिष्ठन्ति, अत्र सिद्धनिर्वाणयोर्भशे नास्ति । कैः कथितम् इत्थम् ! इदि समुट्ठिा -इति अनेन प्रकारेण गणधरदेशाविमहापुरुषः समुद्धिष्टं प्रतिपादितम् । पुनः ऊर्ध्वगमनस्वभावेनायं मुक्तात्मा कुतःपर्यन्तं गच्छति ? कम्मयिमुक्को अप्पा लोयग्गपज्जतं गच्छइ-फर्मभिः विमुक्तोऽयं आत्मा लोकाग्रपर्यन्तं
निर्वाण और सिद्धों में क्या अन्तर है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्यदेव कहते हैं
अन्वयार्थ--(णिव्वाणमेव सिद्धा सिद्धा णिव्वाणमिदि समुद्दिवा) निर्वाण ही सिद्ध हैं और सिद्ध ही निर्वाण हैं, ऐसा कहा गया है । (कम्मविमुक्को अप्पा लोयागपज्जतं गच्छइ) कर्म से रहित आत्मा लोक के अग्रभाग पर्यंत चला जाता है।
टोका--जो निर्वाण है, वे ही सिद्ध हैं और जो सिद्ध हैं, वही निर्वाण है। इन दोनों में कुछ अन्तर नहीं है। यहाँ पर सिद्धि और सिद्ध में एकत्व दिखाया गया है । अथवा सिद्ध कहाँ रहते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर निर्माणस्थान में अथवा सिद्धस्थान में रहते हैं, यह भेद कथन है 1 पुनः अभेदकथन से सिद्ध भगवान् अपने में ही रहते हैं । यहाँ पर सिद्ध और निर्वाण में भेद नहीं है ।
ऐसा किसने कहा ? इस प्रकार से गणधरदेव आदि महापुरुषों ने कहा है ।
शंका-पुनः ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने से ये सिद्ध भगवान् कहाँ तक जाते हैं ?
समाधान-कर्मों से मुक्त हुये ये आत्मा परमात्मा लोक के अग्रभाग पर्यन्त