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नियमसार-प्राभृतम्
५२१ पुनश्च तीर्थकरचक्रवर्तिबलवेषधासुदेवदेवेन्द्रविद्याधरादिजीवानां पिंडीभूतशक्त्यपेक्षयापि अनन्तगुणितशक्तिरूपं केवलं घोयं तेषां सर्वशक्तिमतां प्रभूणामस्ति । अन्यच्च, एतत्रैलोक्यसपशा अनन्तानन्तलोका अपि यवि भवेयुः, तहि तानपि द्रष्टु समर्था फेवला असहाया सर्वोत्कृष्टा दृष्टिदर्शनं विद्यते । किमेते चत्वारो गुणा अम्यऽपि वा भवन्ति ? अय किम्, भवन्ति । अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्तं-वर्णरसगंपस्पर्शरूपमूर्तिकपुद्गलगुणेः शून्यममूर्तत्वम्, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावः शश्वद् विद्यमानत्वमस्तिस्वम्, लोकाकाशप्रमाणासंख्यातप्रवेशापेक्षया सप्रदेशत्वमित्यादयोऽनन्तनन्ता गुणास्तत्र निर्वाणे वसा सिद्धानां सन्ति ।
तद्यथा--अतीतानन्तकालावधावधि अभूतपूर्वाः सिद्धाः अनन्तानन्ताः सन्ति । सत्र ते सर्वे स्व-स्वप्रदेशः परस्परमेकक्षेत्रावगाहिनोऽपि स्वस्वास्तित्ववस्तुत्वामूर्तत्वप्रवेशत्वज्ञानदर्शनसुखवीर्यागुरुलघुकाद्यनन्तगुणैः साध स्वसत्ताभिश्च पृथक् पृथक् को एक क्षण में होता है । पुनः तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देवेंद्र, विद्याधर आदि जीवों को एकत्रित हुई शक्ति को अपेक्षा भी अनन्तगुणी शक्ति रूप से उन सर्वशक्तिमान् प्रभु के केवलवीर्य नाम की अनन्तशक्ति होती है और इस तीन लोक सदश यदि अनन्त-अनन्त लोक भी और हो जावें, तो उन्हें भी देखने में समर्थ, केवल असहाय सर्वोत्कृष्ट दर्शन उन सिद्धों के केवलदर्शन नाम से होता है ।
शंका-क्या ये चार गुण ही होते हैं या अन्य भी होते हैं ?
समाधान--हाँ होते हैं । वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्शरूप मूर्तिक पुद्गल गुणों से शून्य अमूर्तत्व गुण रहता है । अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों से सदाकाल रहने वाला अस्तित्व गुण हैं । लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशों की अपेक्षा से सप्रदेशत्व गुण है । इत्यादि रूप अनन्तानन्त गुण उस निर्वाण में रहने वाले सिद्ध भगवान् के होते हैं।
___ इसे ही कहते हैं-अतीत काल से ले लेकर आजतक अनन्त काल पर्यंत अनन्तानन्त भी सिद्ध अभूतपूर्व है। वहाँ वे सब अपने-अपने प्रदेशों से परम्पर में एक क्षेत्र में रहते हुये भी अपने-अपने अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रदेशत्व, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अगुरुलघु आदि अमन्त गुणों के साथ अपनी सत्ता से पृथक्-पृथक् हैं ।