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नियमसार-प्राभृतम् तत्र न भवेद् षHध्यानं किंतु शुक्लध्यानं कथं निषिध्यते, तत्तु शुचिगुणयोगात् शुक्लमेव ? सत्यमेतत्, परं ध्यानस्थ कार्य कर्मणां क्षयः, स तु तत्र पूर्णो जातोऽतस्तत्र ध्यानस्य वाापि नास्ति । किच, ध्यानस्य फलं तत्र लब्धमेव ।
तात्पर्यमेतत्-एते सिद्धपरमेष्ठिनः स्वमिन्द्रियसुखविरहिताः सर्वपरखध्यालम्बनशून्या अपि स्वाभितभाक्तिकेभ्यो नानाविधाभ्युदयसुखं निःश्रेयससुखं च प्रयच्छन्ति । उक्तं च पात्रकेसरिस्तोत्रे--
वास्यनुपभं सुखं स्तुतिपरेष्यतुष्यन्नपि, क्षिपस्यफुपितोऽपि च ध्रुवमसूयका दुर्गतो। न चेश ! परमेष्ठिता तव विरुध्यते यद्भधान,
न कुप्पति न तुष्यति प्रकृतिमाश्रितो मध्यमाम्॥ शंका--इन सिद्धों में धर्मध्यान नहीं है, सो तो ठीक, किंतु शुक्लध्यान का निषेध क्यों किया ? क्योंकि वह शुचिगुणों के योग से शुक्ल ही है ।
समाधान--आपका कहना सच है, फिर भी ध्यान का कार्य है कर्मों का क्षय होना और वह वहाँ पूर्ण हो चुका है, अतः वहाँ उन सिद्धों में ध्यान की बात भी नहीं है, क्योंकि ध्यान का फल तो उन्हें मिल ही चुका है।
___ यहाँ तात्पर्य यह है कि ये सिद्ध परमेष्ठी स्वयं इंद्रिय-सुख से विरहित हैं, पर द्रव्यों के आलम्बन से शून्य हैं, फिर भी अपने आश्रित भक्तों को अनेक प्रकार से अभ्युदय सुख और निःश्रेयस सुख को देते हैं ।
पात्रकेसरीस्तोत्र में कहा है--
हे भगवन् ! आप अपनी स्तुति करने वालों से हर्षित न होते हुये भी उन्हें अनुपम सुख दे देते हो। जो आपसे द्वेष करते हैं, उन पर क्रोध न करते हुये भी उन्हें दुर्गति में डाल देते हो। फिर भी हे ईश ! आपके परमेष्ठी पद में कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि आप न क्रोध करते हैं और न राग करते हैं, प्रत्युत मध्यम प्रकृति-मध्यस्थ भाव का आश्रय लेने वाले हैं।
१. पात्रकेसरिस्तोत्र, पद्य ८।