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नियमसार-प्राभृतम् उतच श्रीपूज्यपावदेवेन ---
आत्मोपादानसिद्ध स्वयमतिशयवद् योतबाधं विशालम्, खिलासव्यपेतं विषयविरहितं निष्प्रतिद्वंद्वभावम् । अन्यानव्यानपेक्षं निरुपममितं शाश्वसं सर्वकालम्,
उत्कृष्टानन्तसारं परममुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम् ॥ तेषां सिद्धानां कस्यचिदपि परवस्तुन आवश्यकताऽपि नास्ति । तथैवोक्तं तत्रैव भक्तौ
नार्थः क्षुत्तविनाशाद विविधरसयुतैरन्नपानैरशुच्या, नास्पृष्टगन्धमाल्यैनं हि मृदुशयनग्लानिनिवाघभावात् । यातकातरभाके तदुपशमनसभेषजानयंतावद, बोपानर्थक्यवदा व्यपगततिमिरे दृश्यमाने समस्ते ॥
श्री पूज्यपाददेव ने कहा भी है
आत्मा के उपादान से सिद्ध, स्वयं अतिशयशाली, बाधारहित, विशाल, वृद्धि-हास रहित, विषयों से रहित, प्रतिपक्ष भाव से रहित, अन्य द्रव्यों से अनपेश, उपमारहित, अमित, शाश्वत, सर्वकाल रहने वाला, उत्कृष्ट, अनंतसारस्वरूप, ऐसा परम सुख उन सिद्धों के उत्पन्न हो जाता है, पुनः उन सिद्धों को अन्य किसी भी पर वस्तु को आवश्यकता नहीं रहती। . उसी सिद्ध-भक्ति में यह कहा है
उन सिद्धों के क्षधातुषा का अभाव होने से उन्हें नानाविध रसों से युक्त अन्न-पान आदि वस्तुओं से कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता। अशुचि का स्पर्श न होने से उन्हे गंध-माला आदि से कोई प्रयोजन नहीं है । ग्लानि-श्रम और निद्रा आदि का अभाव हो जाने से मृदु शय्या की आवश्यकता नहीं है। आतंक और पीडा के न होने से उसको शमन करने के लिये उत्तम औषध आदि की आवश्यकता नहीं है । अज्ञान अन्धकार के दूर हो जाने से समस्त जगत् को देख लेने पर पुनः उन सिद्धों के लिये दीपक भी व्यर्थ हो है ।
१. सिदभक्ति, संस्कृत । २. सिदभक्ति, संस्कृत ।