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नियमसार-प्राभूत नोकर्म शरीरपर्याप्त्यादिकमपि न, चिंता पवि अट्टरूहाणि गेव-चिता मानसिकसंतापोऽपि न, चतुर्विधार्तभ्यानं चतुर्विधरौद्रध्यानं च नैव । तहि धर्मशुक्लध्याने स्तः ? धम्मसुक्कझाणे णवि-चतुर्विधधर्म्यध्यानं चतुर्विघशुक्लध्यानं चापि न । तत्थेव य णिव्वाणं होइ-तत्रैव च निर्वाणं भवति ।
तद्यथा-यास्मन् पुनरागमनाविरहिताच्याबाधसौख्यमयपदे प्राप्ते सति इमानि दुःखसुखप्रभृतिशुक्लध्यानान्तानि न विद्यन्ते, तत्रैव निर्वाणनामधेयं परमानन्दस्वरूपपरमात्मपदं भवति । ननु “बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्कारनवारमगुणानामत्यन्तोच्छेवो मोक्षः" इति वैशेषिकमतानुयायिनो मन्यन्ते, तहि कथं भवद्भिः दूषणं दीयते ?-नैवं वक्तव्यम्, स्यावादिनां मते हि पंचेन्द्रियविषयव्यापारजनितक्षणिक सांसारिकसुखस्याभावः सिद्धावस्थायाम्, न च शुद्धबुद्धज्ञानदर्शनस्वरूपरमानन्वनिजास्मोत्पन्नसहजपरमालावमयातीन्द्रियसुखाभावस्तत्र । तथैव क्षायोपशमिकमत्याविज्ञानाभावस्तत्र, न च सहजविमलकेवलज्ञानाभावः ।
जहाँ पर ज्ञानावरण आदि आठ कर्म और शरीर-पर्याप्ति आदि नोकर्म भी नहीं हैं, मानसिक संताप रूप चिता भी नहीं है, चार प्रकार के आर्तध्यान और चार प्रकार के रौद्र ध्यान भी नहीं हैं। चार प्रकार के धर्मध्यान और चार प्रकार के शुक्लध्यान भी नहीं हैं, वहीं पर निर्वाण होता है।
उसे ही कहते हैं-जिस पुनरागमरहित, अव्याबाध सौख्यमय पद के प्राप्त कर लेने पर ये दुःख-सुख से लेकर शुक्लध्यान पर्यंत कुछ भी नहीं हैं, वहीं पर निर्वाण नाम का परमानंदस्वरूप परमात्मपद होता है।
शंका-बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नव आत्मा के गुणों का अत्यन्त नाश हो जाना मोक्ष है, ऐसा वैशेषिक मतानुयायी मानते हैं। तो फिर आप उन्हें क्यों दूषण देते हैं ?
समाधान ऐसा नहीं कहना, क्योंकि स्याद्वादियों के मत में पंचेंद्रिय विषय के व्यापार से उत्पन्न हुआ जो क्षणिक सांसारिक सुख है, उसका अभाव सिद्ध अवस्था में माना है, न कि वहाँ पर शुद्ध बुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप परमानन्द रूप निजात्मा से उत्पन्न सहज परमाह्लादमय अतीन्द्रिय सुख का अभाव । उसी प्रकार वहाँ पर क्षायोपशमिक मति, श्रुत आदि ज्ञान का अभाव है, न कि सहज विमल केवलज्ञान का अभाव ।