Book Title: Niyamsara Prabhrut
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 545
________________ ५१४ नियमसार -प्रामृतम् या सिद्धा भवन्ति तदा ते रामरणरत कष्टनाशुद्धं जानादिचतुष्टयस्वभावमंडितमक्षयमविनाश मच्छेद्यम् अय्याबाधातीन्द्रियानुपमं पुण्यपापभावशून्यं पुनरागमनविरहितं नित्यमचलमनालम्बं यत् तन्निर्वाणसौख्यं प्राप्नुवन्ति न च प्रदीप निर्माणं बुद्धकथितकल्पनारूपम् । तत्रैव स्थित्वा ते सदा शाश्वतकालं स्वात्मजन्यपरमानन्दसुखमनुभवन्तो तिष्ठन्ति स्वास्यन्ति, न कदाचिदपि तत आगच्छन्ति नागमिष्यन्ति अनन्तानन्तकालेऽपि । 1 उक्तं च श्रोसमन्तभद्र स्वामिना काले कल्पशतेऽपि च, गते शिवामां न विक्रिया लक्ष्या । उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोकसम्भ्रान्तिकरणपटुः ॥ तात्पर्यमेतत् -- ये सम्यग्वृष्टयो देशव्रतिनो महाव्रतिनो वा संसारे निवसन्तोऽपि स्वामी अर्हत भगवान् सकल परमात्मा जब सिद्ध हो जाते हैं, तब वे जन्म जरा मरण से रहित, आठों कर्मों से रहित, परम शुद्ध, ज्ञानादि चतुष्टय स्वभाव से मण्डित, अक्षय, अविनाशी, अच्छेद्य, अध्याबाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्यपाप से रहित, पुनरागमन से रहित, नित्य, अचल और आलंबन रहित ऐसे निर्वाण सौख्य को प्राप्त कर लेते हैं । वह बुद्ध के द्वारा कल्पित कल्पनारूप, दीपक के बुझ 'जाने के समान शून्यरूप निर्वाण नहीं है । ऐसे निर्वाण पद में स्थित होकर वे सदा शाश्वतकाल तक अपनी आत्मा से उत्पन्न परमानन्द सुख का अनुभव करते हुए वहीं ठहरते हैं और ठहरेंगे। कभी भी वे वहाँ से वापस नहीं आते हैं और न ही अनन्त - अनन्त काल में कभी भी वापस आयेंगे । श्री समंतभद्र स्वामी ने कहा है सैकड़ों कल्प कालों के बीत जाने पर भी मोक्ष को प्राप्त कर चुके जीवों में कभी भी विक्रिया-परिवर्तन नहीं होता, भले हो यहाँ तोनों लोकों में क्षोभ को करने वाला ही उत्पात क्यों न हो जावे । अर्थात् वे सिद्ध सदा काल वहीं रहते हैं, अनन्तों कल्प कालों के बीतने पर भी वे पुनः अवतार नहीं लेते । तात्पर्य यह हुआ कि जो सम्यग्दृष्टि, देशव्रती या महाव्रती संसार में रहते १, रत्नकरण्ड श्रावकाचार ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609