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नियमसार-प्राभृतम्
४५३ शेषाणां बंधकाश्च भवन्ति, न च सर्वथेति विज्ञाय नयविवक्षया सिद्धान्तस्यार्थ निर्णीय तथैव प्रवृत्तिः कर्तव्या भवद्भिः, यथा बंधोऽपि अल्पस्थित्यनुभागकः स्यात् ॥१७॥ केवलिनामुपदेशकाले वचनप्रवृत्त्या की बंनाभाव इत्यानकाय:माचार्यवर्याः समादधः
परिणामपुत्ववयणं, जीवस्स य बंधकारणं होई। परिणामरहियवयणं, तम्ह। गाणिस्स ण हि बंधो॥१७३।। ईहापुवं वयणं, जीवस्स य बंधकारणं होई । ईहारहियं क्यणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधा ॥१७॥
जीवस्स परिणामपुववयणं य बंधकारणं होइं-सर्वसंसारिजीवस्य परिणामपूर्वकमेव वचनं निर्गच्छति, ततस्तद्वचनमेव बंधस्य कारणं भवति । णाणिस्स परिणामरहियवयणं-अर्हत्परमभट्टारकस्य केवलज्ञानिनो वचनं परिणामपूर्वकं मनःपरिणतिपूर्वक नास्ति । तम्हा ण हि बंधो-तस्मात् कारणात् तस्य भगवतो नास्ति कर्मबंधः ।
आपको वैसी ही प्रवृत्ति करनी चाहिये कि जिस प्रकार तुम्हारे भी बन्ध अल्प स्थिति और अल्प अनुभाग वाले ही हो सकें ॥१७२।।
___ केवली भगवान् के उपदेश के समय वचन की प्रवृत्ति होने से बन्ध का अभाव कैसे हुआ ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव समाधान दे रहे हैं• अन्वयार्थ- (जोवस्स य परिणामपुव्यवयणं बन्धकारणं होई) जीव के परिणामपूर्वक वचन बन्ध के कारण होते हैं । (णागिस्स परिणामरहियवयणं) ज्ञानी के परिणाम रहित वचन होते हैं। (तम्हा बन्धो ण हि) इसलिये उनके बन्ध नहीं है। (ईहापुबं वयणं जीवस्स य बन्धकारणं होइ) ईहापूर्वक वचन जोवके बन्ध के कारण होते हैं। (णाणिस्स) केवलज्ञानी के (ईहारहियं वयंणं तम्हा बन्धो ण हि) ईहारहित वचन हैं, इसलिये उनके बन्ध नहीं हैं ।
___टीका--सभी संसारी जीव के परिणामपूर्वक ही वचन निकलते हैं, इसलिये वे वचन ही बन्ध के कारण होते हैं। अहंत परम भट्टारक केवलज्ञानी भगवान् के परिणाम रहित बचन हैं, उनके मन की परिणति से रहित वचन है, इसी कारण से उन भगवान् के कर्मबन्ध नहीं है । उसी प्रकार मोहनीय कर्म के उदय