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नियमसार-प्राभूतम् तथैव जीवस्स य ईहापुव्वं वयणं-मोहनीयकर्मोदयसहितस्य जीवस्य च ईहा-अभिला
पूर्वकं वचनं प्रवर्तते । बन्धकारणं होइ-तद्वचनं कर्मबंधकारणं भवति । गाणिस्सकेवलज्ञानिनो जिनेश्वरस्थ ईहारहियं वयणं-ईहारहितम् अभिलाषारहितं वचनम् अनिच्छाविका दिव्यध्वनिनिगच्छति । तम्हा ण हि बंधो-ततः कारणात् तस्य भगवतो नास्ति बंधः।
तद्यथा--ये मनुष्या मनःप्रणिधानपूर्वक अवन्ति अभिलाषपूर्वकं वा वदंति, अथवा कदाचिद् निद्रायां मूविस्थायां च जनानां मुखात् सहसा संबद्धमसंबद्धमपि वचनं निर्गच्छति, तत्र बुखिपूर्वकाभावादपि तेषां कर्मबंधो जायते । किंच, ते सर्वेऽपि जीवा रागद्वेषमोहाविकषायसहिताः संति, परन्तु केवलिभगवतां सर्वथा रागद्वेषाभावात् बंधाभावो लिगयते ।
ये केचिन्महाममयो वेशसंयताः सम्यग्दृष्टयोवा षोडशभावमाबलेन तीर्थकरकृतियोगगुग समपर्व लेनिनवादललिपादमूले तीर्थंकरप्रकृतिबंधं कृत्वा तीर्थकरा भवन्ति, तेषामेवेच्छामन्तरेण भव्यानां पुण्योदयेन दिव्यध्वनिः निःसरति, सामान्यकेवलिनां चापि। सहित जीव के वचन अभिलाषा पूर्वक होते हैं । बे ही वचन कर्मबन्ध के लिये कारण हैं। केवलज्ञानी जिनेश्वर भगवान् के वचन अभिलाषा रहित है-बिना इच्छा के ही उनकी दिव्यध्वनि निकलती है, इसलिये उन भगवान् के बन्ध नहीं है। .
उसे ही कहते हैं- जो मनुष्य मन के उपयोग पूर्वक बोलते हैं, या अभिलाषा पूर्वक बोलते है, अथवा कदाचित् मनुष्यों के मुख से निद्रा और बेहोशी की अवस्था में सहसा कुछ वचन संदर्भित हों, या असंदर्भित निकल जाते हैं । यद्यपि यहाँ बुद्धिपूर्वक बोलना नहीं है, फिर भी इन सबके कर्मबन्ध होता है, क्योंकि ये सभी जीव राग, द्वेष और मोह आदि कषायों से युक्त हैं । किंतु केवली भगवान् के सर्वथा रागद्वेष का अभाव हो जाने से बन्ध का अभाव कहा गया है।
जो कोई महामुनि, देशवती श्रावक या अविरतसम्यग्दृष्टि सोलह भावनाओं के बल से तीर्थकर प्रकृति के योग्य पुण्य का उपार्जन करके केवली अथवा श्रुतकेवली के चरणमूल में सीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके तीर्थकर हो जाते हैं, उनके ही इच्छा के बिना भव्यों के पुण्योदय से दिव्यध्वनि खिरती है, सामान्य केवलियों की भी दिव्यध्वनि बिना इच्छा के ही होती है ।