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नियमसार-प्राभृतम्
ननु काः षोडशभावना इति चेदुच्यते, सिद्धान्तसूत्रेषु -
"दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णवाए सीलव्य देसु णिरविधारथाए भावासएनु अपरिहीणाए खणलवपडिबुज्झणाए लद्धिसंवेग संपण्णवाए जधाथामे तधातवें साहूणं पासुअपरिचागवाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहूणं वेज्जाव च्चजोगमुत्तबाए अरहंतभत्तीए बहुसुवभत्तीए पवयणभत्तीए पचयण वच्छल्लदाए पञयणप्पभावणदाए अभिक्खणं अभिगवणं मागोवजोगुजुतवाए इच्चेदेहि सोलह कारणेहि जीवा तित्ययरणाम गोवं कम्मं संघति" ।"
इमां प्रकृति कर्मभूमिजा नरा एव बध्नन्ति । उक्तं च गोम्मटसारे—
पढमुवसमिये सम्मे सेसलिये अविरवादि चत्तारि । तित्ययरबंधपारंभया शरा केवल ॥
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प्रश्न – वह सोलह भावनायें कौन सी हैं ?
उत्तर---जो सिद्धांत-ग्रन्थ में सूत्र में कही गई हैं, उन्हें ही कहते हैं-
१ - दर्शन विशुद्धि, २ - विनयसंपन्नता, ३ - शीलव्रतों में अनतिचारता, ४ - आवश्यकों में अपरिहीनता, ५ - क्षणलवप्रतिबुद्धता, ६ -- लब्धिसंवेगसंपन्नता, ७- यथाशक्ति तथातप, ८-साधुओं के लिए प्रासुकपरित्यागता, ९ - साधुओं की समाधि संधारणा, १० - साधुओं की वैयावृत्य योगयुक्तता ११ - अरहंतभक्ति, १२बहुश्रुतभक्ति, १३ – प्रवचनभक्ति, १४ – प्रवचनवत्सलता, १६ - अभीक्ष्णज्ञानोपयोग युक्तता । इन सोलह कारणों से जीव
१५ - प्रवचनप्रभावनता,
तीर्थंकर नाम गोत्र
कर्म को बांधते हैं । तोर्थंकर प्रकृति का चूँकि उच्चगोत्र के साथ अविनाभाव पाया जाता है, इसीलिये यहाँ "गोत्र" नाम से कहा गया है ।
इस प्रकृति को कर्मभूमि के मनुष्य हो बाँधते हैं । गोम्मटसार में कहा है
प्रथमोपशम सम्यक्त्व में, शेष तीन सम्यक्त्व में द्वित्तीयोपशम, क्षयोपशम, और क्षायिक ये तीन सम्यक्त्व हैं। इनमें से किसी भी सम्यक्त्व में, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें इन चारों में से किसी एक गुणस्थान में रहनेवाला कर्मभूमि का मनुष्य केवली या श्रुतकेवली के निकट ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ करता है ।
१. बटूखंडागम, घनला, पुस्तक ८ ।
२. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ९३ ।