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नियमसार-प्राभृतम्
मानस्तंभाः सरांसि प्रविमलजलसत्त्वातिका पुष्पवाटी,
प्राकारो नाट्यशाला द्वितयमुपवनं वेदिकान्तर्ध्वजाध्वा । साल: कल्पमाणां सपरिवृतवनं स्तुपहर्म्यावली च,
,
प्राकारः स्फाटिकोsन्त सुरमुनिसभा पीठिकाप्रे स्वयंभूः " ॥ अस्मिन् समवसरणे यावन्त्यो विभूतयोऽतिशायिमाहात्म्यादयश्च वर्तन्ते यद् भुवनत्रये क्वचित् कदाचिदपि न संभवति । मानस्तंभदर्शनेनैव मानं पलायते, विशतिसहस्र सोपानपक्तिषु शिशवो वृद्धा विकलांगावयोऽपि अंतर्मुहूर्त मात्रेणैवारुह्य देयाधिदेवानां दर्शनं कुर्वन्ति, भगवतां भामंडले जनाः स्वसप्तभवान् पश्यन्ति । एताः सर्वा विशेषता भगवत्प्रसादेनैव न चान्यत्र क्वचित् संभवन्ति । यदि इन्द्रो विद्याधरो
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समवसरण की रचना इस प्रकार है
सबसे पहले धूलीसाल के बाद चारों दिशाओं में चार मानस्तंभ हैं, मानस्तंभों के चारों ओर सरोवर हैं, फिर निर्मल जल से भरी हुई खाई है, फिर पुष्पवाटिका - लतावन हैं, उसके आगे पहला कोट है, उसके आगे दोनों ओर दो-दो नाट्यशालायें हैं, उसके आगे अशोक आदि वन हैं, उसके आगे वेदिका है, तदनंतर ध्वजाओं की पंक्तियाँ हैं, फिर दूसरा कोट है, उसके आगे वेदिकासहित कल्पवृक्षों का वन है, उसके बाद स्तूप और स्तूपों के बाद महलों को पंक्तियाँ हैं, फिर स्फटिक मणिमय तीसरा कोट हैं, उसके भीतर मनुष्य, देव और मुनियों की बारह सभायें हैं । तदनंतर पीठिका है और पीठिका के अग्रभाग पर स्वयंभू भगवान् अर्हतदेव विराजमान हैं ।
इस समवसरण में जितनी विभूतियाँ और जो अतिशय माहात्म्य आदि रहते हैं, वे सब इस तीन लोक में कहीं पर कदाचित् भी संभव नहीं है । मानस्तंभ के दर्शन से ही मान नष्ट हो जाता है । बालक, वृद्ध और विकलांग आदि भी अंतमुहूर्त में ही समवसरण की बीस हजार सीढ़ियों पर चढ़कर देवाधिदेव के दर्शन करते हैं, भगवान् के भामंडल में लोग अपने सात भवों को देख लेते हैं । ये सब विशेषतायें वहाँ भगवान् के प्रसाद से ही रहती हैं । ये अन्यत्र कहीं भी संभव नहीं हैं। यदि इंद्र अथवा कोई विद्यावर आकर पुनः कृत्रिम समवसरण बनावे, अर्थात् भगवान् के बिना ही समवसरण बनावे, तो वहाँ ये अतिशय संभव नहीं हैं । जैसे
१. महापुराण, पर्व २३, श्लोक १९२ ।