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नियमसार-प्रामृतम् सर्वकाले निन्द्यन्ते, परं तु--ब्राह्मोसुंदरीचंदनाप्रभृत्यायिका मरुदेव्याविजिनमातरश्चापीन्द्रादि देवैः श्री भरतसगररामचंद्राविमहापुरुषैरपि बंद्या बभूवुः । उक्तं चैतदेव श्रीशुभचंद्राचार्येण
यमिभिर्जन्मनिविण्णदूषिता यधपि स्त्रियः। तथाप्येकान्ततस्तासां विद्यते नाघसंभवः ॥५६॥ ननु सन्ति जीवलोके काश्चिच्छमशीलसंयमोपेताः । निजवंशतिलकभूताः श्रुतसत्यसमन्यिता नार्यः ।।५७।। सतौरवेन महरवेन वृत्तेन विनयेन च।
मिशन स्निरः भानिजद, गुटन्ति माता ५८॥ मर्यादापुरुषोत्तमरामचन्द्र : सीतया सहकदा वरधर्मायिकामपूजयत् । सीतायां बीक्षितायां सत्यां तामप्यर्ववत ।
इह दुष्पमकालेऽद्यत्वेऽपि कतिपया आयिका जिनागमाध्ययनाध्यापनशलाः पूर्वाचार्यरचितग्रन्थानुयावप्रवणा निजसम्यक्श्रद्धानज्ञानचारित्रतपोभिः धर्मोपदेशादिमातायें भी इंद्रादि देवों से और श्री भरत, सगर, रामचन्द्र आदि महापुरुषों से भी वंदनीय हुई हैं।
श्री शुभचन्द्राचार्य ने कहा भी है
यद्यपि संसार से निर्वेद को प्राप्त हुए ऐसे साधुओं ने स्त्रियों के दूषण कहे हैं, फिर भी एकांत से उनमें दोष संभव ही हों, ऐसा नहीं है। इस जीवलोक में कितनी ही नारियाँ शम, शील और संयम से राहित, अपने वंश के लिये तिलकरूप, शास्त्र और सत्य से समन्वित होती हैं । कोई-कोई स्त्रियाँ अपने सतीत्व से, अपनी महानता से, अपने चारित्र से, अपने विवेक से और विनय से इस पृथ्वीतल को भूषित करती रहती हैं।
___ मर्यादापुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र ने एक समय सीता के साथ वरधर्मा नाम की आर्थिका की पूजा की थी तथा सीता के दीक्षा ले लेने पर उनको भी नमस्कार किया था।
इस दुःषम काल मे आज भी कई एक आयिकायें जिनागम के अध्ययनअध्यापन में कुशल, पूर्वाचार्यो द्वारा रचित ग्रंथों के अनुवाद में प्रवीण, अपने सम्यक १. ज्ञानार्णव, गर्ग १२ । २. पल्मपुराण ।