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नियमसार-प्राभूतम्
विरोधिनामपि दर्पणतल इव स्वच्छरत्नमयी भूमिः, इंद्राज्ञया मेघकुमारकृतगन्धीदकवर्षा, फलभारनशा लिधान्याविसस्यानि सर्वजनतानंद:, शीतलमदसुगंधपवनः, कूपतडागादिषु निर्मलजलपरिपूर्णता, धूमोल्कापातादिविरहिताकाश निर्मलता, सकलप्राणिषु रोगादिबाधाविरहितत्वम् यक्षेन्द्रमस्तक स्थित चतुर्दिव्यधर्मचक्रम् पावनिक्षेपस्थानेषु दिव्यसुरभितसुवर्णकमलानि -- इमे त्रयोदशातिशया' देवोपनीता भवन्ति । पुनश्च -
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अशोकवृक्षः सुरपुष्पबृष्टिवित्यध्वनिश्वामरमासनं च । भामंडल दुन्दुभिरातपत्रे, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥
एतादृक्कल्पनातीत विभवसमेतसमवसरणेऽर्हस्केलिनो विराजन्ते । तेषां भुक्स्युपसर्गाभावेन कवलाहारोपसर्गादिकल्पनाऽपि न संभवति । ते जिना इच्छामंतरेणैव होना, ४- तल के समय भूमिका स्वच्छ एवं रत्नमयी होना, ५ - इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार द्वारा गंधोदक की वर्षा का होना, ६- फल के भार से झुके हुए शालिधान आदि के खेतों का हो जाना, ७ – सर्वजनों को आनंद का होना, ८- शीतल मंद सुगंध हवा, ९ - कुएँ, तालाब आदि का स्वच्छ जल से भर जाना, १० धुआँ, उल्कापात आदि से रहित आकाश का निर्मल होना, ११ - सर्व प्राणियों में रोग, बाधा आदि का नहीं होना, १२ पक्षेद्रों के मस्तक पर चार दिव्य धर्मचकों का होना १३ - भगवान् के चरण रखने के स्थान आदि में दिव्य सुगंधित सुवर्ण कमलों का होना, ये तेरह अतिशय देवकृत होते हैं ।
पुनः १-अशोक वृक्ष, २ - देवों द्वारा पुष्पवृष्टि, ३- दिव्यध्वनि, ४- चामर, ५ - सिंहासन, ६--भामंडल, ७- दुन्दुभि बाजे और ८- छत्रत्रय, ये आठ महाप्रातिहार्य जिनेंद्रदेव के होते हैं ।
इस प्रकार कल्पना से भी परे वैभव से युक्त समवसरण में अहंत केवली भगवान् विराजमान रहते हैं ।
उनके आहार और उपसर्ग का अभाव होने से कवलाहार और उपसर्ग आदि की कल्पना भी उनमें संभव नहीं है ।
१. विलोयपत्ति अ० ४ ० २६४ में केवलज्ञान के ग्यारह और देवानोव ते अतिशेष माने हैं ।