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नियमसार-प्राभृतम् वा कश्चिदागत्म पुनः कृत्रिमसमवसरणं रचयेहि तत्र एतादृगतिशायिता न शक्यते, रेवतीराजोपरीक्षानिमित्तनि पितसमवसरणवत् ।
उक्तं च वादिराजमुनिना--- पाषाणात्मा तदितरसमः केवलं रनमूर्तिः,
__मानस्तंभो भवति न परस्तावृशो रत्नवर्गः। दृष्टिप्राप्तो हरति स कथं मानरोग नराणाम,
प्रत्यासत्तियदि न भवतस्तस्य तच्छक्तिहेतुः ।। श्रीमहावीरस्वामिनां प्रथमदर्शनेनैवात्यर्थ प्रभावितः श्रीगौतमस्वामी भक्तिभरेण गद्गदवाण्या "जयति भगवान् हेमाम्भोजे' इत्यादिना स्तुवन्नवादोत्
अताम्रनयनोत्पलं सकलकोपवर्जयात,
___कटाक्षरमोक्षहीनमविकारतोद्रेकतः । विषावमकहानितः प्रहसितव्यमान सदा,
मुखं कथयतीव ते हृदयशुद्धिमात्यन्तिकीम् ॥ कि रेवती रानी की परीक्षा के निमित्त एक क्षुल्लक ने विद्या से समवसरण बना दिया था।
श्री वादिराज मुनिराज ने सो ही कहा है
पाषाण रूप बनाया गया मानस्तंभ अन्य पाषाण के समान केवल रत्नों का मूर्तिरूप है, तो यह मानस्तंभ अपने दर्शकों का मानरोग कैसे नष्ट कर सकता है ? क्योंकि है भगवन् ! आपकी निकटता यदि उसे नहीं मिलती है, तो वह साधारण ही रहता है, किन्तु आपका सानिध्य मिल जाने से उसमें भव्यों के मान गलित करने की शक्ति आ जाती है।
श्री महावीर स्वामी के प्रथम दर्शन से ही अत्यर्थ प्रभावित हुए गौतम. स्वामी भक्ति से युक्त हो गद्गद वाणी से--"जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविज़ भिती" इत्यादिरूप से स्तुति करते हुए कहते हैं--
हे भगवन् ! आपके नेत्रकमल लालिमा से रहित हैं, क्योंकि आपने संपूर्ण कोधरूपी अग्नि को मोह लिया है। आपके नेत्रों में कटाक्ष नहीं है, क्योंकि आपमें विकार का उद्रेक लेखमाव भी नहीं है । आपमें विषाद और मद न होने से आपका १. एकीभावस्तोत्र । २. चैत्यभक्ति ।