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नियमसार-प्राभृतम् ठाणणिसेज्जविहारा-स्थान निषण्णमुपवेशनं बिहारश्चेमाः क्रियाः केवलिणो ईहापुत्वं ण होई-केवलिनो भगवत ईहापूर्वकं न भवन्ति, प्रत्युत एता: क्रिया स्वयमेव जायन्ते । तम्हा बंधो ण होइ-तस्मात् कारणात् तस्य प्रभोः बंधोः न भवति । पुनः कस्य बंधो भवति ? मोहणीयस्स साक-मोहनीयकर्मसहितस्य जीवस्य साक्षार्थम् अक्षार्थमिन्द्रियार्थं तेन साधं यो वर्तते, तस्य संसारिजीवस्य बंधो भवत्येव । परमहत्केवलिनां कर्मबंधो नास्ति ।
तद्यथा-ये केचित् जिनमुत्रांकिता: केवलज्ञानसूर्यमुत्पादयन्ति, ते तस्मिन्नेव क्षणे भूतलावुपरि पंचसहस्त्रधनू षि उद्गच्छति । तत्राकाशे तदानीमेव इन्द्राज्ञया धनद आगत्य समवसरणं निर्मिणोति । तत्र प्राक् चतुर्दिक्षु मानस्तंभाः पश्चात् धूलोसालकोटप्रभृतिद्वादशसभास्तदुपरि त्रिकटनीयुतगंधकुट्यामपरि कमलासने चतुरंगुलस्पृष्टवैव अर्हन्तो भगवन्तो विराजन्ते ।
उप भामिनायाग-... (तम्हा बन्धो ण होइ) इसलिये उनके बन्ध नहीं है। (मोहणीयस्स साकट्ठ) मोहनीयसहित के इन्द्रियों के व्यापार में बन्ध होता है ।
टोका-खड़े होना, बैठना और श्रीविहार करना ये क्रियायें केवली भगवान् के इच्छापूर्वक नहीं होती हैं, बल्कि स्वयमेव होती हैं । इस कारण उन प्रभु के बन्ध नहीं होता। मोहनीयकर्म सहित जीव के इंद्रियों की प्रवृत्ति होने पर उन संसारी जीव के बन्ध होता ही होता है किन्तु अहंत केवलियों के कर्मन्बन्ध नहीं है ।
उसे ही कहते हैं--जो कोई जिनमुद्रापारी महामुनि केवलज्ञानसूर्य को उत्पन्न कर लेते हैं, वे उसी क्षण में भूतल से ऊपर आकाश में पांच हजार धनुष पर चले जाते हैं। वहाँ आकाश में उसी समय इंद्र की आज्ञा से कुबेर आकर समवसरण की रचना कर देता है.। उसमें पहले चारों दिशाओं में मानस्तंभ, धूलोसाल कोट आदि से लेकर बारह सभायें, उसके ऊपर तीन कटनी से युत गंधकुटी, उसके ऊपर कमलासन पर चार अंगुल अधर-सिंहासन को न स्पर्श करके ही अहंत भगवान् विराजमान हो जाते हैं।
भगवान् जिनसेनाचार्य ने कहा है