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नियमसार-प्राभृतम् एवासं भासासू तालुवईतोटकंठवावारे । परिहरिय एक्ककालं भव्वजणे दिवभासितं । पगवीए अक्सलियो संमत्तिदयम्मि णवमुत्ताणि । णिस्सरदि णिवमाणो दिव्यझुणी जाव जोमणयं ॥ सेसेसं समएसुं गणहरवेविंदचक्कवट्टीमं । पहाणुरुवमस्यं विवझुणी म ससभंसोहि ॥ छहष्वणवपयत्थे पंचट्ठीकायसलतच्चाणि ।
णाणाधिहहेवहि दिग्व मुणो भणइ भन्वाणं' । तात्पर्यमेतत्--ये तीर्थकरावयः पुण्यपुरुषा एतादृयो विष्यवनेः स्वामिनो बभूवुः, तेषां वन्दना भक्ति कृत्वा पुनः पुनः एतदेव मया प्रार्घसे--इमाः षोडशभावना मम मनोमंदिरे स्फुटिता भवेयुः ॥१७४॥
केवलिनोऽन्याः काः क्रिया इच्छामंतरेणेति जिज्ञासायामाचार्यवर्याः स्पष्टयन्तिठाणणिसेज्जविहारा, इहापवं ण होइ केवलिणो । तम्हा ण होइ बंधो, साकर्ट मोहणीयस्स ॥१७५॥
रहित होकर एक ही समय भव्य जनों को दिव्य उपदेश देना। भगवान् जिनेन्द्र के स्वभाव से अस्खलित और अनुपम दिव्य ध्वनि तीनों संध्या कालों में नव मुहूर्तों तक निकलती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। इससे अतिरिक्त गणधरदेव अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ का निरूपण करने के लिए बह दिव्य ध्वनि शेष समयों में खिर जाती है । यह भव्यों को छह द्रव्य, नत्र पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्त्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है ।
यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि जो तीर्थंकर आदि पुण्य पुरुष ऐसी दिव्य ध्वनि के स्वामी हुए हैं, उनको वंदना, भक्ति करके पुनः पुनः मेरे द्वारा यह प्रार्थना की जाती है कि ये सोलह भावनायें मेरे मनमन्दिर में स्फुरायमान हावें ॥१७४॥
केवलो भगवान् की अन्य और कौन सी कियायें बिना इच्छा के होती हैं ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्यवर्य स्पष्ट कर रहे हैं--
____ अन्वयार्थ—(केवलिणो ठाणणिसेज्जविरारा ईहाकु ण होइ) केवली भगवान् के ठहरना, बैठना और विहार करना ये क्रियायें इच्छापूर्वक नहीं होती हैं । १. तिलोयपणत्ति, अ० ४, गाथा ९०१ से ९०५। २. सानग्बी ना पाठांतरम् ।
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