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नियमसार-प्राभृतम् भगवान् । तेण दु सोऽबंधगो भणिदो-तेनैवेच्छापूर्वकज्ञानदर्शनाभावेन असौ अबंधगः स्थित्यनुभागबंधविशेषरहितो भणितः परमागमसूत्रेषु ।
तद्यथा-ईहते ईहनं वा ईहा इच्छा, तस्या मोहनीयकर्मोदयनिमित्तस्वात् । केलिनां मोहनीयकर्माभावात् ते सर्वथा इच्छामन्तरेणैव सर्व जानन्ति पश्यन्ति । यथा दर्पणस्य स्वच्छगुणसद्भावात् तत्र सन्मुखागताः पदार्थाः स्वयमेव प्रतिबिंबीभवन्ति. तद्वत् केवलिना स्वच्छज्ञानगुणे सर्व जगत् प्रतिफलति । अस्मात्कारणादेव तेषां कर्मबंधो नास्ति । ननु सिद्धान्त तेषामेकसाताप्रकृतिबंध उच्यते । सत्यमय, किंतु स बंधो नाममात्रेणैव। उक्तं च श्रीनेमिचन्द्रदेवै---
समद्विदिगो बंधो सावस्सुक्यप्पिगो जदो तस्स'। किंच, वेदनीयस्य जघन्यापि स्थितिः द्वावशमुहर्ता। केवलज्ञानी भगवान हैं। इस कारण इच्छापूर्वक ज्ञान-दर्शन का अभाव होने से वे भगवान् परमागम सूत्र में स्थिति, अनुभाग बंधविशेष से रहित कहे गये हैं।
उसे ही कहते हैं- चाहते हैं या चाहनामात्र ईहा है । इसे ही इच्छा कहते हैं। यह मोहनीय कर्म के निमित्त से होती है । केवली भगवान् के मोहनीय कर्म का अभाव होने से वे सर्वथा इच्छा के बिना ही सब कुछ जानते और देखते हैं । जैसे दर्पण में स्वच्छ गुण का सद्भाव होने से उसके सन्मुख आये हुये पदार्थ स्वयं ही प्रतिबिबित हो जाते हैं, उसी तरह केवली भगवान के स्वच्छ ज्ञानगुण में सारा जगत् झलकता रहता है । इसी कारण उनके कर्मबंध नहीं होता।
शंका----सिद्धांत में केवली प्रभु के एक साता प्रकृति का बंध कहा जाता है।
समाधान-सत्य ही है, किंतु वह बंध नाममात्र से ही है। श्री नेमिचंद्राचार्य ने कहा है
साता प्रकृति का एक समय की स्थितिवाला बंध, वह साता के उदय रूप ही उनके रहता है। अर्थात् केवली भगवान् के जिस कारण एक साता का ही बंध है, सो भी उदयस्वरूप ही है ।
१. गोम्मटमार कर्मकांड, गाथा २७४ ।