Book Title: Niyamsara Prabhrut
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 521
________________ ४९० नियमसार-प्राभृतम् निति मान्यताकथनतन्निराकरणपरत्वेन त्रीणि सूत्राणि गतानि, तदनु स एव भगवान् स्वस्य ज्ञानगुणेन सर्व जग जानाति न च स्वमात्मानमिति मान्यताकथनतन्निराकरणमुख्यत्वेन त्रीणि सूत्राणि गतानीति षभिः सूत्रद्वितीयोऽन्तराधिकारो गतः ।।१७१।। फेवली प्रभुः साधारणास्माइग्जनसदशमिच्छापूर्वक सर्व जानाति पश्यति, किमुतास्ति कश्चिद् विशेषः ? इति जिज्ञासायां स्पष्टयन्त्याचार्यवर्याः जाणतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलियो। केवलणाणी तम्हा, तेण दु सोऽबंधगो भगिदो ॥१७२॥ केबलिणो जाणतो पस्संतो ईहापुब्वं ण होइ-घातिकर्म विधातकस्य ज्ञानभास्करस्य केवलिनो भगवतो जानन् पश्यन् ज्ञप्तिक्रिया शिक्रिया ईहापूर्विका न भवति, तस्य प्रोनकर्मजनिटलाया अभावात् । तम्हा-तस्मात् हेतोः, केबलणाणीतस्य केवलशानीति अन्वर्थसंज्ञा, केवलमसहायं स्वभावज्ञानमस्यास्तीति केवलज्ञानी हैं, परपदार्थों को नहीं। इस मान्यता को कहने तथा उसके निराकरण में तत्पर ऐसे तीन सूत्र हुये । इसके बाद वे ही भगवान् अपने ज्ञान गुण से सर्व जगत् को जानते हैं, न कि अपनी आत्मा को, इस मान्यता के कहने और उसके निराकरण करने की मुख्यता से तीन सूत्र हुये। इस तरह इन छह सूत्रों द्वारा यह दूसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ ॥१७१॥ केवली प्रभु साधारण हम लोगों के सदृश इच्छापूर्वक सब कुछ जानते और देखते हैं, अथवा कुछ अंतर है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्यदेव स्पष्ट कर अन्वयार्थ (केवलिणो जाणतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ) केवली भगवान् का जानना देखना इच्छापूर्वक नहीं है । (तम्हा केवलणाणो तेण दु सो अबंधगो भणिदो) इसलिये केवलज्ञानी उसी हेतु से वे कर्मों के अबंधक कहे गये हैं। टोका--धातिकर्म को नष्ट करने वाले, ज्ञानसूर्य, केवली भगवान् की जानने की क्रिया और देखने को क्रिया इच्छापूर्वक नहीं होती, क्योंकि उनमें मोहनीय कर्म से उत्पन्न हुई इच्छा का अभाव हो गया है। इस हेतु से उनका "केवलज्ञानी" यह अन्वर्थ नाम है। केवल-असहाय, स्वभावज्ञान जिनके है, वह

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