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नियमसार-प्राभृतम् ज्ञातं मयाध्यात्मदृष्टया ज्ञाददर्शनयोलक्षणम् । सिद्धान्तन्यायशास्त्रयोलक्षणे परस्परमविसंवादो कथं भवेदिति कथ्यताम् । तदेवोच्यते लघीयस्त्रयटोकायाम
"ननु स्वरूपग्रहणं दर्शन मिति राधान्तेन कथं न विरोध इति चेन्न, अभिप्रायभेदात् । परविप्रतिपत्तिनिरासायं हि न्यायशास्त्रम् । ततस्तवम्युपगतस्य निर्विकल्पदर्शनस्य प्रामाण्यविघातार्थ स्याद्वादिभिः सामान्यग्रहणमित्याख्यायते । स्वरूपग्रहणावस्थायां छप्रस्थानां बहिरर्थविशेषग्रहणाभावात् । न खलु प्रदीपः स्वरूपप्रकाशनाय व्यवहारिभिरविष्यते । सतो बहिरर्थविशेषव्यवहारानुपयोगाद्दर्शनरय। ज्ञानमेम प्रमाणं तदुपयोगात्, विकल्पात्मकस्वात्तस्य । तत्त्वतस्तु स्वरूपग्रहणमेव धर्शन केवलिनां तयोयुगपत्प्रवृत्तेः, अन्यथा ज्ञानस्य सामान्यविशेषात्मकवस्तुविषयत्वाभावप्रसंगात्'।"
प्रश्न-मैंने अध्यात्म दृष्टि से ज्ञान और दर्शन का लक्षण समझ लिया है। सिद्धांत और न्यायशास्त्र में परस्पर में अविसंवाद-अविरोध कैसे होवे ? सो हो बतलाइये ।
उत्तर-उसे ही कहते हैं, लषीयस्यय की टीका में कहा है--
शंका-स्वरूप को ग्रहण करने वाला दर्शन है, ऐसा सिद्धांत कथन है, उस से विरोध क्यों नहीं होगा ?
समाधान--ऐसा नहीं कहना, क्योंकि अभिप्राय भेद है । पर के विसंवाद को दूर करने के लिये न्यायशास्त्र हैं । इसलिये उनके द्वारा स्वीकृत निर्विकल्प दर्शन की प्रमाणता को खतम करने के लिये स्याद्वादियों ने दर्शन को सामान्य ग्रहण करने वाला कहा है, क्योंकि स्वरूप को ग्रहण करने की अवस्था में छप्रस्थ जन बाह्य पदार्थों के विशेष को ग्रहण नहीं कर सकते और प्रमाणता का तो बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से ही विचार किया जाता है, क्योंकि वह व्यवहार में उपयोगी है। जैसे कि दीपक अपने स्वरूप को प्रकाशित करने के लिये व्यवहारी जनों के द्वारा नहीं हूँढा जाता है । अर्थात् एक दीपक ही अपने को प्रकाशित कर देता है, उसे प्रकाशित करने के लिये दूसरा दीपक नहीं लाया जाता । इसलिये दर्शन बाह्य पदार्थों के विशेष को ग्रहण करने के व्यवहार में अनुपयोगी है।"
ज्ञान ही प्रमाण है, क्योंकि वह उस विशेष को ग्रहण करने में उपयोगी है और विकल्पस्वरूप है। वास्तव में स्वरूप को ग्रहण करना ही दर्शन है और केवली भगवान् में इन दोनों की युगपत् प्रवृत्ति होती है। अन्यथा-यदि ऐसा नहीं मानेंगे, तो ज्ञान के सामान्यविशेष रूप वस्तु को विषय करने का अभाव हो जावेगा। १. लधीयस्त्रयम्, प्रथम परिच्छेद, श्लोक ५-६ की टीका का अंश ।