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नियमसार-प्राभृतम्
४८७ तम्हा गाणं सपरपयासं-तस्मात् नियमात् ज्ञानं स्वपरप्रकाशं सिद्धं जातम् । तह दसणं होदि-तथैव दर्शनमपि स्वपरप्रकाशं भवति-इति सिद्ध यति ।
तद्यथा--अत्राभेवनयेनात्मा ज्ञानं दर्शनं च परस्परमविनाभावित्वेनैकमेव, न च द्वे, त्रीणि वा पृथक् पृथक्, ततस्त्रीण्यपि स्वपरप्रकाशकलक्षणेन समन्वितानि वर्तन्ते । ननु तर्कशास्त्रसम्मतलक्षणमेव मान्यमत्र कुदकुददेवानाम्, न च राधान्तशास्त्रप्रोक्तम् । किंचास्य तु अत्र निराकरणं दृश्यते । सत्यमुक्तं भवता; किन्त्वनाध्यात्मग्रंथे भेदाभेवग्राहकव्यवहारनिश्चयकथन विवक्षास्ति, न च सिद्धान्तग्रन्थप्रतिपादितकथनस्य सर्वथा निराकरणम्, प्रत्युत नविभागेनैव ।
न्यायग्रन्थे स्वपरपदार्थानां सामान्यग्रहणं सत्तालोकनमात्र निर्विकल्प दर्शनं स्वपरवस्तुनोविशेषधर्मग्रहणं सविकल्पकं ज्ञानं मन्यते । अत्रास्या मान्यताया अपि न च पूर्णतया समर्थन दृश्यते ।
इस नियम से ज्ञान स्वपरप्रकाशक सिद्ध हो गया, उसी प्रकार दर्शन भी स्वपरप्रकाशक सिद्ध हो जाता है।
इसे ही कहते हैं. यहाँ अभेदनय से आत्मा, ज्ञान और दर्शन, ये परस्पर अविनाभावी रूप से एक ही हैं, न कि दो या तीन पृथक-पृथक्, इसलिये तीनों भी स्वपरप्रकाशक लक्षणरूप से समन्वित ही हैं।
शंका-तर्कशास्त्र सम्मत लक्षण ही श्री कुंदकुंददेव को मान्य है, न कि सिद्धांत शास्त्रकथित, क्योंकि यहाँ तो इसका निराकरण दिख रहा है ।
__ समाधान-आपने ठीक कहा है, किंतु यहाँ अध्यात्मग्नन्थ में भेदनाहक व्यवहारनय और अभेदग्राहक निश्चयनय के कथन को विवक्षा है, न कि सिद्धांतग्रन्थ में प्रतिपादित कथन का सर्वथा निराकरण, बल्कि नविभाग से ही कथन किया गया है।
न्याय-ग्रन्थ में स्वपर पदार्थों के सामान्य धर्म को ग्रहण करने वाला सत्तावलोकन मात्र दर्शन निर्विकल्प माना गया है और स्त्रपर वस्तु के विशेष धर्म को ग्रहण करने वाला जान सविकल्पक माना गया है। यहाँ पर इस मान्यता का भी पूर्णतया समर्थन नहीं देखा जाता ।