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नियमसार-प्राभृतम् शुद्धज्ञानदर्शनस्वरूपः स्व आत्मा तं घ, सर्वमपि एतन्मूर्तामूर्तचेतनेतरान् स्वं च त्रैका लि. कानन्तानन्तगणपर्यायसहितं त्रैलोक्योदरवतिसर्वपदार्थसार्थमलोकाकाशं च स्पष्टतया पश्यतः समयमात्र एवावलोकयतः केवलिनो भगवता ज्ञानं सकलप्रत्यक्षमिन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीन्द्रियं भवति । किंतु जो-अस्माद् व्यतिरिक्तो यः कश्चिद् भगवन्नामधारी पुरुषः, णाणागुणपज्जएण संजुत्तं पुवुत्तसयलदब्वं सम्मं ण य पेच्छइ-नानागुणपर्यायैः संयुक्तं भुतभाविवर्तमानकालीनसर्वगुणपर्यायः सहितं पूर्वोक्तजीवाजीवाधिकारकथितसकलद्रव्यं षड्द्रन्यसमूहं लोकालोकं च सम्यग्रहस्तामलकवत् स्पष्टं युगपदेव न पश्यति नावलोकयितुं क्षमो भवति, तस्स परोक्खदिट्ठी हवे-तस्य परमेश्वरंमन्यमानस्य दर्शन परोक्षमेवेन्द्रियानिन्द्रियाधीनमेव भवेत् ।
इतो विस्तर:--केवलिनो जिनाः कृत्स्नदर्शनावरणकर्मसंक्षयात् स्वस्यात्मानं परं सचराचरं जगत् अलोकाकाशं च साक्षात् पश्यन्ति । तथाप्यत्र यत् कश्चिदाशंकामकरोत्, तत् "दर्शनं बहिर्विषये न प्रवर्तते" इति सिद्धान्तकथनमाथित्यैव ब्रूते, और काम छह है। इनमें केवल जीव द्रव्य चेतन हैं, शेष पाँच द्रव्य अचेतन हैं । शुद्ध ज्ञान दर्शन आत्मा स्व है । इन सभी मूर्त-अमूर्त, चेतन, अचेतन, स्व तथा अन्य सभी को, अर्थात् तीनों कालों की अनंतानंत गुणपर्यायों से सहित तीन लोक के उदर में समाये हुये सर्व पदार्थसमूह को तथा अलोकाकाश को भी स्पष्ट रूप से एक समय में ही देखते हुये केवली भगवान का ज्ञान सकल प्रत्यक्ष और इंद्रियमन से अनपेक्ष अतीन्द्रिय होता है।
किंतु इनसे अतिरिक्त जो कोई भगवान् नामधारी पुरुष भूत, भविष्यत्, वर्तमानकालीन सर्व गणपर्यायों से सहित पूर्वोक्त जीव, अजीव अधिकार में कहे गये सकल द्रव्य समूह को तथा लोक-अलोक को अच्छी तरह हाथ पर रखे हुये आंवले के समान एक साथ स्पष्ट रूप से नहीं देख लेते हैं- अर्थात् इन सबको युगपत् ही देखने में समर्थ नहीं हैं, अपने को परमेश्वर मानने वाले उन लोगों का दर्शन परोक्ष ही है इंद्रिय और मन के आश्रित ही है ।
इसे ही कहते हैं-केवली भगवान संपूर्ण दर्शनावरण का क्षय हो जाने से अपनी आत्मा को, अन्य सर्व चराचर जगत् को और अलोकाकाश को साक्षात् देखते हैं। फिर भी यहाँ पर किसी ने जो यह आशंका को है, वह दर्शन बाह्य