________________
४७८८
नियमसार-प्राभृतम्
उक्तं च प्रवचनसारे
आवा णाणपमाणं, णाणं णेयपमाणमुद्दिळं।
णेयं लोगालोग तम्हा गाणं तु सटवगये॥ तात्पर्यमेतत् -अत्र व्यवहारनयोऽसत्यार्थभूतो मिथ्याऽसत्यं वा न ग्रहीतव्यो प्रत्युल सम्यगेव स्वविषयकथने इति ज्ञात्वा परस्परविरोधिनामपि नयानां सम्यकस्वरूपमवबुद्धय तेषु परस्परमैत्री स्थापयर्याद्धर्भवद्भिः वस्तुस्वरूपोऽनेकान्तेन ज्ञातव्यः ॥१६४-१६५॥
एवमुभयनयापेक्षया केवलिजिनानां स्वरूपप्रतिपादनपरत्वेन द्वे सूत्रे गते, तदनु ज्ञानं परप्रकाशमित्यायेकान्तकथननिराकरणेनोभयनयेन च ज्ञानदर्शनयोरात्मनश्चापि स्वरूपनिरूपणपरत्वेन पंचसूत्राणि गतानि। इति सप्तगाथासूत्रैः प्रथमोऽन्तराधिकारो गतः ।
अप मितवचनेन निदमयनयकथनेन वा एकान्तं गृहीत्वा कश्चित् कथवति–केवली भगवान् स्वस्मादहिरियतं विमगि न ६ - रालो यला पूनिय तं समादधते श्रीचन्दकुन्ददेवाः
अप्पसरूवं पेच्छांद, लोयालोयं ण केवली भगवं । जइ कोइ भणइ एवं, तस्स य किं दूसणं होई ॥१६६॥ प्रवचनसार म कहा भी है__ आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है और ज्ञेय लोक-अलोक सर्व है। इसलिये ज्ञान सर्वगत है।
तात्पर्य यह हुआ कि यहाँ पर व्यवहारनय असत्यार्थ है, मिथ्या है, या असत्य है, ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिये । बल्कि वह अपने विषय को कहने में समीचीन ही है। ऐसा जानकर परस्पर विरोधी भी नयों के समीचीन स्वरूप को समझकर उनमें परस्पर मैत्री को स्थापित करते हुये आपको अनेकांत से वस्तुस्वरूप समझना चाहिये ॥१६४-१६५॥
यहाँ पर सिद्धांत के वचन से अथवा निश्चयनय के कथन से एकांत पकड़कर कोई कहता है कि "केवली भगवान् अपनी आत्मा से अतिरिक्त कुछ भी देखने में समर्थ नहीं हैं' ? उसी शिष्य का पूर्वपक्ष रखकर श्रीकुंदकुंददेव उसका समाधान करते हैं
___ अन्वयार्थ—(केवली भगवं अपसरूवं पेच्छदि ण लोयालोयं) केवली भगवान् आत्मा के स्वरूप को ही देखते हैं, लोक-अलोक को नहीं। (जइ कोइ एवं भणइ) १. प्रवचनसार, गाथा २३ ।