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नियमसार-प्राभूतम्
४७७ इतो विस्तर:--अत्र पराश्रितो व्यवहारनयः, स्वाश्रितो निश्चयनय इति विवक्षया कथनं वर्तते, अतः स्वस्मादभिन्नानन्तसिद्धजीवसंसारिजीवसमूहपुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि तेषां गणपर्यायाश्च परशदेन उच्यन्ते । ज्ञानं दर्शनमात्मा च परं जानाति पश्यति प्रकाशयति । अस्य कथनस्यापि पराश्रितत्वात् परनिमित्तापेक्षस्वाद ईदृग् व्यवहारनय एवं गृह्णाति, परन्तु असौ स्वमात्मानं न गृह्णाति जातुचित्, रसग्रहणे चतुरिन्द्रियवत् । तथैव निश्चयनयः स्वस्मादतिरिक्तं न किमपि गृह्णाति, रूपग्रहणे रसनेन्द्रि यवत् ।
अथवा आत्मा ज्ञानप्रमाणं ज्ञानं लोकालोकस्वरूपजेयप्रमाणं तस्मादात्मनोऽव्यतिरिक्त दर्शनं च। ततोऽभेदनाहिनिश्चयनयेन सर्य ज्ञेयं स्वात्मन्येव तिष्ठति, स्वात्मनि ज्ञायमाने सर्व ज्ञायते दृश्यते प्रकाश्यते चैत्र ।
प्रकाशक ही है। वह आत्मा को ही देखता है, न कि परद्रव्यों को, उनकी गुणपर्यायों को और अन्य सारे चर-अचर जगत की।
इमी का विस्तार करते हैं यहाँ पर व्यवहारनय पराश्रित है और निश्चयनय अपने आश्रित है। इसी विवक्षा से यह कथन किया गया है । इसलिये अपने से भिन्न अनंत सिद्ध जीव, अनंत संसारी जीवों का समूह, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य तथा उनकी गुणपर्यायें, ये सब 'पर' शब्द से कहे जाते हैं । ज्ञान, दर्शन और आत्मा पर को जानते हैं, देखते हैं और प्रकाशित करते हैं। यह कथन भी पर के आश्रित होने से-परनिमित्त की अपेक्षा रखने से पराश्रित है । ऐसा व्यवहारनय ही ग्रहण करता है। परन्तु यह नय अपनी आत्मा को कदाचित् भी ग्रहण नहीं करता, जैसे कि चक्षु इन्द्रिय रस को नहीं ग्रहण करती। उसी प्रकार निश्चयनय अपनी आत्मा से अतिरिक्त कुछ भी नहीं ग्रहण करता, जैसे कि रूप को ग्रहण करने में रसना इंद्रिय व्यापार नहीं करती।
अथवा आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान लोक अलोक स्वरूप ज्ञेयप्रमाण है । इसलिये दर्शन आत्मा से अभिन्न है। अतः अभेदग्राही निश्चयनय से सभी ज्ञेय अपनी आत्मा में ही ठहरते हैं। तब आत्मा को जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है, देख लिया जाता है और प्रकाशित कर लिया जाता ही है ।