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नियमसार-प्राभूत तद्यथा-यदि आत्मा परपदार्थसार्थमेव प्रकाशयति जानाति, तहि वर्शन तु स्वप्रकाशकत्वेन तेनात्मना पृथगेव भविष्यति । ततः कारणात् तदर्शनं किमपि परब्रव्यस्वरूपज्ञ यवस्तु ज्ञातुं न शक्नोति । अन्यच्चात्मापि स्वमात्मानं न ज्ञास्यति, नैयायिकमतेऽपि आत्मात्मानं न जानाति, तहि आत्मनो ज्ञान कथं भविष्यतीति शंकायां एतत् ज्ञातव्यं यत् नैयायिकाः समवायगुणेनात्मनि ज्ञानगुणसम्बन्धं मन्यन्ते, न तथा जैनमोऽस्ति । तात्पर्यमेतत्- अनेकान्तमते नयचक्रं सम्यगवबुद्धचात्मतत्वस्य ज्ञानदर्शनयोश्च स्वरूपमवबोद्धव्यम् ।।१६३।। अधुना श्रीकुन्दबून्ददेवा मयविषक्षया स्वमिमानि दूषणागि परिहरन्ति
णाणं परप्पयासं, क्वहारणयेण दंसणं तम्हा। अप्पा परप्पयासो, ववहारेणयेण दसणं तम्हा ॥१६४॥
उसे ही कहते हैं-यदि आत्मा परपदार्थ के समूह को ही प्रकाशित करता है-जानता है, तो दर्शन स्वप्रकाशक होने से उस आत्मा से पृथक् हो रहेगा। इस कारण से वह दर्शन कुछ भी परद्रव्यस्वरूप ज्ञेय वस्तु को जानने में समर्थ नहीं होगा । पुन: आत्मा भी अपने आपको नहीं जानेगा। नैयायिक मत में भी आत्मा स्वयं को नहीं जानता है, तो फिर आत्मा का ज्ञान कैसे होवेगा? ऐसी शंका होने पर ऐसा जानना कि नैयायिक लोग समवाय गुण से आत्मा में ज्ञान गुण का संबंध मानते हैं, वैसा जैनमत में नहीं है ।
तात्पर्य यह हुआ कि अनेकांत मत में नयसमूह को अच्छी तरह समझकर आत्मतत्त्व का और ज्ञान दर्शन का स्वरूप जानना चाहिये ।।१६३।।
अब श्रीकुन्दकुन्ददेव नयविवक्षा से स्वयं इन दूषणों का परिहार करते हैं--
अन्वयार्थ--(ववहारणयेण गाणं परप्पयासं तम्हा सणं) व्यवहारनय से ज्ञान परप्रकाशो है, इस कारण दर्शन परप्रकाशी है । (ववहारणयेण अप्पा परप्पयासो तम्हा देसणं) व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशी है, इस कारण दर्शन भी परप्रकाशी है । (णिच्छयणयएण गाणं अत्पपयासं तम्हा सणं) निश्चयनय से ज्ञान आत्मप्रकाशी है, इस कारण दर्शन भी आत्मप्रकाशी है । (णिच्छयणयएण अप्णा अप्पयासो तम्हा