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नियमसार-प्राभूतम्
४७३ पुग्दर्शनं पृथगिति गुणद्वयं नास्ति, सेन कारणेन तेषामात्मपरिज्ञानाभावभूषणं प्राप्नोति । जैनमते पुननिगुणेन परमव्यं जानाति, दर्शनगुणेनात्मानं जानाति इत्यात्मपरिज्ञानाभावदूषणं न प्राप्नोति । किंच, सामान्यग्राहक वर्शनं विशेषग्राहकं ज्ञानं भव्यते तदा ज्ञानस्य प्रमाणत्वं न प्राप्नोति । कस्मादिति चेत-बस्तुग्राहकं प्रमाणम्, वस्तु च सामान्यविशेषात्मकम्, ज्ञानेन पुनर्वस्त्येकवेशो विशेष एव गृहोतो, न च वस्तु, सिद्धांतेन पुनर्गुणगुणिनोर भिन्नत्वात् संशयविमोहविभ्रमरहितवस्तुशानस्वरूपात्मैव प्रमाणम् । स च प्रदीपयत् स्वपरगतं सामान्य विशेषं च जानाति । तेन कारणेनाभेदेन तस्यैव प्रमाणत्वमिति । कि बहुना, यदि कोऽपि तार्थ सिद्धांतार्थ व ज्ञात्वेकान्तदुराग्रहत्यागेन मयविभागेन मध्यस्थवृत्त्या व्याख्यानं करोति, तदा द्वयमपि घटते। तर्के मुख्यत्रया परसमयध्याख्यानम्, सिद्धान्ते पुनः स्वसमयव्याख्यानं मुख्यवृत्त्या'।" अत्र बृहद्रव्यसंग्रहटीकायाः संक्षिप्तावतरणं दत्तम् । विशेषजिज्ञासुना तत्रैव द्रष्टव्यम् । अत्राध्यात्मग्रंथे श्रीकुंदकुंददेवा
समाधान.--नैयायिक मत में ज्ञान पृथक और दर्शन पृथक् ऐसे दो गुण नहीं हैं, इस कारण उनके यहाँ आत्मा का ज्ञान नहीं होना, हदूषण आता है । किंतु जैन मत में तो ज्ञानगुण से पर द्रव्य को जानते हैं और दर्शनगुण से आत्मा को जानते हैं । इसलिये आत्मा को नहीं जाननेरूप दूषण नहीं आता।
बूसरी बात यह है कि सामान्य ग्राहक दर्शन और विशेषग्राहक ज्ञान है, जब ऐसा कहा जावेगा, तो वह ज्ञान प्रमाणता को नहीं प्राप्त होगा ।
शंका---ऐसा क्यों ?
समाधान-सो ही बताते हैं । वस्तु को ग्रहण करने वाला प्रमाण है और बह वस्तु सामान्य विशेषात्मक है । पुनः ज्ञान ने वस्तु का एकदेश विशेष ही ग्रहण किया है, न कि वस्तु को । सिद्धान्त से गुण-गुणी अभिन्न हैं और संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रहित वस्तु को जानने वाला ज्ञान स्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । वह प्रदीप के समान स्वपर के सामान्य और विशेष को जानता है। इस कारण अभेद रूप से वह आत्मा ही प्रमाण है। अधिक कहने से क्या ? यदि कोई भी तक के अर्थ को और सिद्धांत के अर्थ को जानकर एकांत दुराग्रह का त्याग करके नयविभाग से मध्यस्थ वृत्ति से व्याख्यान करता है, तब दोनों ही घटित हो जाते हैं । तकशास्त्र में मुख्यता से परसमय का व्याख्यान है और सिद्धांत में मुख्यरूप से स्वसमय का व्याख्यान है। यहाँ पर बृहदाव्यसंग्रह की टीका का संक्षेप में कुछ अवतरण दिया गया है, विशेष जिज्ञासुओं को वहीं से देख लेना चाहिये । • नवव्यसंग्रह, गाया ४४ की टीका के बीच-बीच के अंश ।