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नियमसार-प्राभृतम् किंतु तर्कशास्त्रेऽन्यदेव कथितं वर्तते- “स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणनम्'।" स्वस्यापूर्वपदार्थस्य निश्चयात्मकं सविकल्पकं ज्ञानम्, सत्तावलोकनमात्रं निर्विकल्पक दर्शनम् । सर्वन्यायग्रंथेषु स्वपरसामान्यग्राहि दर्शनं स्वपरविशेषग्राहि ज्ञानं मन्यते । अनयोर्चयो सिद्धान्तन्याययोर्मान्यतायामपेक्षया न शोषोऽवतरति ।
बृहद्न्यसंग्रहटीकायां कथितमस्ति
"एवं तर्काभिप्रायेण सत्तावलोकनदर्शनं ध्याख्यासम् । अत अध्वं सिखाताभिप्रायेण कथ्यते । तथाहि-उत्सरजानोस्पत्तिनिमित्तं यत् प्रयत्ले तद्रूपं यत् स्वस्यात्मनः परिच्छेदनमवलोकनं तद वर्शनं भण्यते । तदनंतरं यदबहिविषये विकल्परूपेण पदार्थग्रहणं तज्ज्ञानमिति बात्तिकम् । यद्यात्मग्राहकं बर्शनम्, परग्नाहकं ज्ञानं भण्यते, तहि यथा नैयायिकमते ज्ञानमात्मानं न जानाति तथा जैनमतेऽपि जानमात्मानं न जानातोति दूषणं प्राप्नोति । अत्र परिहारः--नैयायिकमते ज्ञानं
किंतु तर्कशास्त्र में अन्य ही कहा है---
"अपना और अपूर्व पदार्थ का निश्चय कराने वाला ज्ञान प्रमाण है।" अपना और अपर्व पदार्थ का निश्चय कराने वाला सविकल्प ज्ञान है तथा सत्तावलोकन मात्र निर्विकल्प दर्शन है। सभी न्याय-ग्रन्थों में स्वपर के सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन है और स्वपर के विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान है । इन दोनों सिद्धांत और न्याय को मान्यता में अपेक्षा से दोष नहीं आता।।
बृहद्रव्यसंग्रह की टीका में कहा है-
"इस तरह तर्क ग्रन्थ के अभिप्राय से सत्तावलोकन दर्शन कहा गया है। इसके ऊपर सिद्धांत के अभिप्राय से कहते हैं। तथाहि-उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति में जो प्रयत्न है, उस रूप में जो अपनी आत्मा का परिच्छेदन-अवलोकन है, वह दर्शन कहलाता है। इसके अनंतर जो बाह्य विषय में विकल्परूप से पदार्थ का ग्रहण है, वह ज्ञान है, ऐसा वात्तिक है।"
शंका--यदि आत्मा का ग्राहक दर्शन है और पर का ग्राहक ज्ञान है, तो जैसे नैयायिक के मत में ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है, वैसे ही जैन मत में भी जान आत्मा को नहीं जानेगा, यह बहुत बड़ा दूषण आ जावेगा ?
१. परीक्षामुखसूत्र १।