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नियमसार-प्राभृतम् इमामुभयमान्यतामपि गौणवृत्त्यावगणय्य व्यवहारनिश्चयनयापेक्षया अन्यत्किमपि विलक्षणमेव लक्षणं कथयिष्यन्ति ।
तात्पर्यमेतत्-~~-ग्रन्थकर्तृ णामभिप्रायवशात् ज्ञानदर्शनयोर्लक्षणभेवेऽपि नात्र विसंवादो गृहीतव्यः, प्रत्युत नयविभागेन सुष्ठतया सर्वमपि अवगन्तव्यम् ॥१६१-१६२॥ कश्चित् कथयति मात्मा परप्रकाशकस्तहि कि दूषणं भवतीति सूरिवर्याः स्पष्टयन्ति
अप्पा परप्पयासो, तइया अपेण दंसणं भिण्णं । ण हदि परदव्वगयं, दंसणमिदि वपिणदं तम्हा ॥१६३॥
अप्पा परप्पयासो-यदि आत्मा परप्रकाशक एष, तइया अप्पेण सण भिण्णं-तहि आत्मना दर्शनं भिन्नं भविष्यति । दंसणं परदध्वगयं ण वदि-पुनः वर्शनं परद्रव्यगतं परपदार्थप्रकाशकं नास्ति। इदि पण्णिदं तम्हा-इत्थं त्वयैव वर्णितम् । तस्मादेवैतब् दूषणं दृश्यते ।
यहाँ पर अध्यात्मग्रन्थ में श्री कुंदकुंददेव इन दोनों ही मान्यताओं को गौण करके व्यवहार और निश्चय की अपेक्षा से अन्य एक विलक्षण ही लक्षण कहेंगे ।
यहाँ तात्पर्य यह है कि ग्रन्थकर्ताओं के अभिप्राय के बश से ज्ञान-दर्शन के लक्षण में भेद होने पर भी यहाँ विसंवाद नहीं ग्रहण करना चाहिये, प्रत्युत नयविवक्षा से अच्छी तरह सभी को समझना चाहिये ।।१६१-१६२।।
__ कोई कहे कि आत्मा परप्रकाशक है, तो क्या दूषण आता है ? इसी बात को आचार्यदेव स्पष्ट कर रहे हैं
__ अन्वयार्थ-(अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं) यदि आत्मा परप्रकाशी है, तो आत्मा से दर्शन भिन्न रहेगा, (दंसणं परदव्वगयं ण हवदि) तो पुनः वह दर्शन परद्रव्य को जानने वाला नहीं होगा। (तम्हा इदि बण्णिदं) क्योंकि आपने वैसा ही माना है।
टोका-यदि आत्मा परप्रकाश ही है, तो आत्मा से दर्शन भिन्न हो जायेगा, पुनः वह दर्शन परद्रव्य का प्रकाशक नहीं होगा, ऐसा आपने ही कहा है । इसीलिये यह दूषण दिख रहा है।