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नियमसार-प्राभृतम् मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियसगं च सव्वं च। पेच्छंतस्स दु पाने, पच्चसमणि दियं होइ ॥१६७।। पुवुत्तसयलदव्यं, णाणागुणपज्जएण संजुत्तं ।
जो ण य पेच्छइ सम्म, परोक्खदिट्टी हवे तस्स ॥१६८॥
केवली भगवं अप्पसरूव पेच्छदि लोयालोयं ण-त्रयोदशगुणस्थाने आर्हन्त्यविभूतिस्वरूपानन्तचतुष्टयसमन्वितः केवली भगवान् केवलमात्मस्वरूपमेव पश्यति, न च लोकालोको । जइ कोइ एवं भण इ--यदि कोऽपि नयविवक्षानभिज्ञो एवं प्रकारेण भणति मन्यते वा, तस्स य किं दूसणं होइ-तस्य तथैव मन्यमानस्य च किं दूषणं भवति ? तवेष प्रदश्यते । मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणि दियं होइ-मूर्त पुद्गलद्रव्यं संसारिजीवाश्च, अमूर्त धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि शुद्धबुद्धसिद्धजीवाः शुद्धनयेन संसारिजीवाश्च । द्रव्यम् एतत् षद्रव्यसमूहम् । चेतनं केवलं जीवद्रव्यम्, इतरमचेतनानि शेषपंचद्रव्याणि च स्वकं यदि कोई ऐसा कहता है, (तस्स य कि दूसणं होइ) उसके कथन में क्या दूषण आता है ? सो ही कहते हैं-(मुत्तमुमतं दश्च चेयणमियरं च सगं सर्व च) मूर्तिक, अमूर्तिक, चेतन और अचेतन तथा स्त्र और अन्य सर्व द्रव्य इन सबको (पेच्छंतस्स दु णाणं पकचक्खमणि दियं होइ) देखने वाले का ही ज्ञान प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय होता है। (णाणागुणपज्जए ण संजुत्तं पुवुत्तसयलदब्ब) नाना गुणपर्यायों से संयुक्त पूर्वोक्त सकल द्रव्यों को (जो सम्म ण य पेच्छइ) जो अच्छी तरह नहीं देखते, (तस्स परोक्खदिट्टी हबे) उनके परोक्ष दर्शन होता है।
टीका-तेरहवं गुणस्थान में आर्हन्त्य की विभूतिस्वरूप अनंतचतुष्टय से समन्वित केवली भगवान् केवल अपने आत्मस्वरूप को ही देखते हैं, न कि लोकअलोक को। यदि कोई नयविवक्षा से अनभिज्ञ ऐसा कहते हैं, अथवा मानते हैं, उन वैसा मानने वालों के लिये क्या दूषण आता है, सो ही दिखलाते हैं ।
पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है और संसारी जीव भी मूर्तिक हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य अमूर्तिक हैं, तथा शुद्ध बुद्ध सिद्ध जीव अमूर्तिक हैं और शुद्धनय से संसारी जीव भी अमू तिक हैं। ये जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश