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अथ शुद्धोपयोगाधिकारः अष्टशतसहस्राणि दानवतिहागि दांचतानि । सयोगकेबलिजिनानां संख्यास्तानहं त्रिकरणशुद्धधाञ्जलि बद्ध्या सिरसा नमस्यामि ।
____ अथ व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्गाभ्यां साध्यो भावद्रव्यस्वरूपोभयमोक्षस्तत्प्रतिपादकः शद्धोपयोगनामधेयो द्वादशोऽधिकारः प्रारभ्यते । प्रागस्मिन्नेव ग्रन्थे उपयोगस्य ज्ञानदर्शनभेदेन द्वौ भदौ कृत्वा उभयस्यापि स्वभाविभावभेदेन द्वौ द्वौ भेदी उक्तौ, तत्र केवलज्ञानं स्वभावज्ञानम्, केवलदर्शनं स्वभावदर्शनं च । इमे द्वे अपि यस्य स्तः स केवली आत्मा। एषां शुद्धज्ञानदर्शनशालिनां केवलिनां सिद्धानां चास्मिन् अधिकारे कथनमस्ति, ततोऽयं शुद्धोपयोगाधिकारः कथ्यते । किंतु यवाध्यात्मभाषया उपयोगस्य अशुभशुभशुखापेक्षया यो भेदा उच्यन्ते, तदा मिथ्यात्वसासादनमिश्र
आठ लाख अट्ठानवे हजार पाँच सौ बयासी सयोगकेवली जिन होते हैं, उन सबको मैं अंजलि जोड़कर त्रिकरण शुद्धिपूर्वक शिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ । अर्थात् इस ढाई द्वीप की एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में एक साथ केवली भगवान् अधिक संख्या में उपर्युक्त कथित इतने ही हो सकते हैं। उनको यहाँ नमस्कार किया है।
व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग से साध्य भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष होता है। इन दोनों मोक्षों के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाला यह शुद्धोपयोग नाम का बारहवाँ अधिकार प्रारंभ किया जाता है ।
पहले इसी ग्रंथ में उपयोग के ज्ञानदर्शन के भेद से दो भेद कहे गये हैं। पुनः दोनों के स्वभाव और विभाव के भेद से दो-दो भेद कहे गये हैं। उनमें केवलज्ञान स्वभाव ज्ञान है और केवलदर्शन स्वभाव दर्शन है। ये दोनों जिनके हैं, उन आत्मा को केवली भगवान् कहते हैं। इन शुद्ध ज्ञानदर्शनवाले केवली भगवान् और सिद्धों का इस अधिकार में कथन है । इसलिये यह "शुद्धोपयोग" नाम का अधिकार कहा जाता है।
किंतु जब अध्यात्म भाषा से उपयोग के अशुभ, शुभ और शुद्ध की अपेक्षा