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नियमसार -प्राभृतम्
श्रीअमृतचंद्रसूरिणापि तथैव प्रोक्तम्-
तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । दर्पणत इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र । तात्पर्यमेतत् सर्वे पुराणपुरुषा व्यवहारनिश्चयावश्यकच लेनाप्रमत्ताविगुणस्थाने वारुह्य केवलिनो भवन्तीति ज्ञात्वा तदसहायंस्वभावज्ञानप्राप्त्यर्थं यः कोऽपि तैरुपायो निर्दिष्टः, स एव परमादरेण यथाशक्ति भवद्भिरपि कर्तव्यः ॥१५९॥ केवलिगः प्रभोः ज्ञानदर्शने क्रमशो भवतो युगपद्धति प्रश्नमादधने सूविर्याः
जुगधं वह गाणं, केवलणाणिस्स दंसणं च तहा | दिणयरपयासतापं, जइ वह तह मुणेयवं ॥ १६०॥
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केवलापिस पा परमज्योतिः पुण्जस्य ज्ञानं तथा च दर्शनम् उभयमपि
फेलानिनो जिनेन्द्र देवस्थ
युगपत् वर्तते न च छप
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श्री अमृतचंद्रसूरि ने भी यही बात कही है
वह परम उत्कृष्ट ज्योति जयशील होवे कि जिसमें अपनी समस्त अनंत पर्यायों के साथ सकल पदार्थ समूह दर्पण के समान प्रतिबिंबित हो रहे हैं ।
तात्पर्य यह हुआ कि सभी पुराणपुरुष व्यवहार निश्चय आवश्यक के बल से अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में चढ़कर केवली हो जाते हैं । ऐसा जानकर उस असहाय, स्वभाव ज्ञान को प्राप्त करने के लिये जो कोई उपाय उन केवलियों ने कहा हैं, आपको यथाशक्ति परम आदर पूर्वक वही उपाय करना चाहिये ।। १५९ ॥ केवली प्रभु के ज्ञान दर्शन क्रम से होते हैं, या एक साथ ? ऐसा प्रश्न होने पर श्री आचार्यदेव समाधान करते हैं ।
अन्ययार्थ - (केवलणाणिस्स गाणं च तहा दंसणं जुगवं बट्टइ) केवलज्ञानी के ज्ञान और दर्शन ये दोनों एक साथ होते हैं । ( जाइ दिणवरपयासतानं वट्ट तह मुणेयब्वं) जैसे सूर्य के प्रकाश और ताप एक साथ होते हैं, वैसे हो जानना चाहिये ।
टीका -- परमज्योतिपुंज केवलज्ञानी जिनेंद्रदेव के ज्ञान और दर्शन ये दोनों ही एक साथ वर्तन करते हैं, किन्तु छद्यस्थ जनों के समान कम से नहीं होते हैं । १. गुरुपार्थसिद्धयुपाय |