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नियमसार-प्राभृतम्
३७७ अत एवं गृहकुटम्बादिपरिग्रहं त्यक्त्वा यत्याश्रमे प्रविश्य गुरुभ्यो ग्रहीतमलोत्तरगणान् पालयन्तोऽप्रमत्तगुणस्थाने आरुह्य स्थायिसामायिकप्राप्त्यर्थ हास्यरत्याविकषायं शमयित्वा परमसाम्यसुधारसं पिबेयुः, तत एव कर्माणि निर्जीयन्ते । उक्तं च ज्ञानार्णवमहाशास्त्रं.....
साम्यकोटि समारहो यमी जयति कर्म यत् । निमिषान्तेन तज्जन्मकोटिभिस्तपसेसरः ।। साम्यमेव परं ध्यानं प्रणीतं विश्ववशिभिः ।
तस्यैव व्यक्तये नूनं मन्येऽयं शास्त्रविस्तरः ॥ तात्पर्यमेतत्---नियमसारसमयसारादिग्रंथानामेक एव सारो यत् शत्रुमित्रादिषु रत्यरतिपरिणतिः, इष्टवियोगानिष्टसंयोगादिप्रसंगे हर्षविषादादिप्रवृत्तिश्च परिहरणीया भवति भव्यजीवानाम् ॥१३१॥ करना शक्य नहीं है। इसलिये मन को उपशांत करने के लिये सज्जन पुरुषों ने घर में रहना त्याग कर वन का आश्रय लिया है ।
इस कारण गृह, कुटुम्ब आदि परिग्रह को छोड़ कर यतियों के आश्रम में प्रवेश करके गुरुओं से मूलगुण उत्तरगुणों को ग्रहण कर उनका पालन करते हुए सातवें गुणस्थान में आरोहण करके स्थायी सामायिक की प्राप्ति के लिये हास्य, रति आदि कषायों का शमन करके परमसमतारूपी अमृत का पान करना चाहिये, इसी से कर्म निर्जीर्ण होंगे।
ज्ञानार्ण वमहाशास्त्र में कहा भी है
समता की तराज पर आरूढ़ हुए मुनिराज एक निभिषमात्र में जिन कर्मों को जीत लेते हैं, उन कर्मों को समताभाव से रहित मुनि करोड़ों जन्मों में भी तपस्या करके नहीं जीत पाते । विश्वदर्शी जिनेंद्र भगवान् ने समताभाव को ही सर्वश्रेष्ठ ध्यान कहा है । उस समताभाव को सिद्धि के लिये ही यह सब शास्त्रों का विस्तार है, ऐसा मैं मानता हूँ।
तात्पर्य यह हुआ कि नियमसार आदि ग्रन्थों का एक हो सार है कि शत्र-मित्र आदि में द्वेष और राग की परिणति तथा इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि के प्रसंग में हर्ष, त्रिपाद आदि प्रवृत्तियां भव्य जोत्रों के छोड़ देने योग्य हैं ।।१३१॥ १. ज्ञानार्णव, गुणदोषविचाराविकार, पृ० २४८ ।