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नियमसार-प्रांभृतम् संयमबलन ऊर्ध्यवेयकपर्यन्तमपि गन्तुं शक्नुवन्ति, किंतु निजज्ञानदर्शनस्वरूपपरमानन्दसुखमयशाश्वतं पदं प्राप्तुं न क्षमन्ते । आसन्नभन्यजीवाः सप्ततिशतार्यखण्डेषु कदाचिद् विदेहक्षेत्रेषत्पद्यन्ते, तत्र संशयविपर्ययानध्यवसायवोषध्युदासार्थ केवलिश्रुतकेलिपादमूले गत्था सम्यक्त्वलब्धि चारित्रलब्धि च संप्राप्य साक्षात् तस्मिन्नेव भवात् मोक्तुं शक्नुवन्ति । कवाचित पंचाशत्रुत्तराष्टशतम्लेच्छखंडपुत्पद्यं “सवमिलिच्छम्मिमिच्छत्तं'' इति वचनात् मिथ्यात्वगुणस्थान एव तिष्ठन्ति । कदाचित् दशसु भरतरावतेषु जन्म गृहीत्वा तीर्थंकरोत्पत्तियोग्यचतुर्थकाले एव मोक्षपथं मोक्षं च लभन्ते । त्रिचत्वारिंशदधिकप्रिस्तर सुधागचनलोरिमन् सार्धद्वयद्वीपेष्वेव कर्मभूमिजनराः कर्म नाशयितुं क्षमा नान्यत्र द्वीपसमुद्रेषु ।
तथैव नानाविधाः कर्मप्रकृतयः । "तं पुण अविहं वा अडदालसयं असंखके हैं। उनमें अभव्य जीव द्रव्यसंयम के बल से ऊर्ब गैबेयक पर्यत भी जा सकते हैं। किंतु निज ज्ञानदर्शन स्वरूप परमानंद सुखमय शाश्वत सुख को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते हैं। आसन्न भव्यजीव एक सौ सत्तर आर्यखंडों में से कदाचित् विदेह क्षेत्रों में उत्पन्न हो जाते हैं । वहाँ संशय, विपर्यय या अनध्यवसाय दोषों को दूर करने के लिये केवली या इतकेवली के पादमूल में जाकर सम्यक्त्वलब्धि और चारित्रलब्धि को प्राप्त कर साक्षात् उसी भव से मोक्ष जा सकते हैं। कदाचित् आठ सो पचास म्लेच्छ खंडों में उत्पन्न होकर "सर्व म्लेच्छ खंडों में मिथ्यात्व गणस्थान ही है" इस वचन से मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहते हैं। कदाचित् पांच भरत और पाँच ऐरावत इन दस क्षेत्रों में जन्म लेकर तीर्थकरदेव की उत्पत्ति के योग्य चौथे काल में ही मोक्षमार्ग को और मोक्षको प्राप्त करते हैं। तीन सौ तेतालीस राजु प्रमाण इस घन लोक में ढाई द्वीपों में ही कर्मभूमिज मनुष्य कर्मों का नाश करने में समर्थ होते हैं, अन्यत्र द्वीप और समुद्रों में नहीं।
उसी प्रकार नानाविध कर्मप्रकृतियाँ हैं, कहा भो है-"वे कर्म आठ प्रकार के हैं, अथवा उनके उत्तर भेद एक सो
१. तिलोमपत्ति, अ० ४, गाथा २९३७ ।