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नियमसार-प्राभूतम्
तद्यथा— ये केचित् दिगम्बरमुनयः शिष्यपरिक रसमन्वित चतुविधसंघात् पिच्छिकमंडलुशास्त्रप्रभृत्युपकरणाद् रत्नत्रयसाधनभूतनिजशरीराच्चापि ममत्वमपहाय स्वपरभेदविज्ञानजनितपरमानन्दलक्षणनिजपरमतत्त्वज्ञानामृतस्वरूपं चतुर्दशरत्ननथनिधिप्रभृतिचक्रचतिकोषाद् धनदकोषाच्चाप्यधिकां ज्ञाननिधि लभन्ते, त एवं परमतपोधनाः परमसमाधिरूपातिगूढास्पदे स्थित्वा परमाह्लादपीयूषं पिबन्तः परमतृप्ता भवन्ति । कस्मिन् काले ? यस्मिन् काले सर्वथा शरीरादपि निर्ममा भवन्ति । उक्तं च देवैरेव -
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परमाणुपमानं वा, सुछा देहाविएसु जस्स पुणो ।
विज्जदि अदि सो सिद्धि, ण लबि सय्यागमधशे वि' ॥
तात्पर्यमेतत् - ये परमासन्नभव्यवरपुंडरीकाः पंचेन्द्रियप्रशस्तव्यापारख्यातिलाभ पूजा निदानप्रभृतिविभावभावसमूहं परजनसंपर्क च त्यक्त्वा शुद्धबुद्धनित्यनिरंजनज्ञानघननिजपरमात्मनि तिष्ठन्ति स्वमेवात्मानं स्वेन स्वस्मै स्वस्मात् स्वस्मिन् स्थित्वा
,
इसे ही कहते हैं— जो कोई दिगंबर मुनि शिष्यपरिकर से सहित ऐसे चतुविध संघ से, पिच्छी, कमंडलु, शास्त्र आदि उपकरणों से तथा रत्नत्रय के साधन - भूत निज शरोर से भी ममत्व को छोड़कर स्वपर के भेदविज्ञान से उत्पन्न हुये परमानंद लक्षण निजपरम तत्त्व ज्ञानामृत स्वरूप ऐसी ज्ञाननिधि को प्राप्त कर लेते हैं । यह ज्ञाननिधि, चौदह रत्न, नवनिधि आदि से सहित चक्रवर्ती के भंडार से और कुबेर के कोष से भी अधिक है । ऐसी ज्ञाननिधि को प्राप्त करने वाले तपोधन ही परम समाधिरूप अतीव गूढ़ स्थान में स्थित होकर परमाह्लादरूप अमृत को पीते हुये परम तृप्त हो जाते हैं । जिस काल में वे साधु अपने शरीर से भी सर्वथा निर्मम हो जाते हैं, उसी समय वे इस ज्ञानामृत का अनुभव करते हैं ।
श्री कुन्दकुन्ददेव ने कहा है-
जिनके अपने देह आदि में परमाणु मात्र भी ममत्व भाव विद्यमान है, वे मुनि सर्व आगम के ज्ञानी होकर भी मुक्ति को नहीं प्राप्त कर सकते ।
यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि जो परम आसन्न, भव्यवर, श्रेष्ठ जीव पंचेंद्रियों के प्रशस्त व्यापार, ख्याति, लाभ, पूजा, निदान आदि विभाव भावों को और अन्य जनों के सम्पर्क को छोड़कर शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन ज्ञानघन निज परमात्मा १. प्रवचनसार, गाथा २३९ ।