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नियमसार-प्राभृतम् क्रिया अपि परिपूर्णाः स्युः । तथैव बाहुबलिनोऽपि दीक्षाकाले व्यवहारनयापेक्षयावश्यक आसंवत्सरं ध्याने च निश्चयनयापेक्षया सर्वावश्यकं परिपूर्ण जातम् ।
किंच-निश्चयावश्यकरूपपरमध्यानसिद्धयर्थमेव व्यवहारावश्यकं कर्तुमुपदेशोऽस्ति । यदि प्रयासमन्तरेण तद्व्यानं सिद्धयति तर्हि महान् गुण एव, न च वोषः । अथवा तीर्थंकरा भरता बाहुबली च महापुरुषाः पूर्वेषु अनेकभवेष दीक्षा ग्राहं प्राहं व्यवहारावश्यकमत्यर्थं चक्रिवांसः । अत एव एतेषामस्मिन् भवे ईषत्प्रयासेनैव निश्चयक्रियायाः सिद्धिः, ताफलभूता कैवल्योत्पत्तिश्च संजाता।
तात्पर्यमेतत्- ये केचिद् मुमुक्षवो महाव्रतविभूषितांगाः स्वांगेऽपि निःस्पृहाः प्रमादमपसार्य स्वाध्यायवन्दनादिक्रियां यथाशक्ति यथासमयं ययाविधि कुर्वन्ति, त एवाप्रमत्तापूर्वकरणाद्यवस्था संप्राप्य सकलविमलजानदर्शनसुखवीर्यभाजो भवन्तीति ज्ञात्वा निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनाप्रायश्चित्तसमाधिभक्त्यावश्यकस्वरूपं वीत
के समय व्यवहारनय की अपेक्षा से आवश्यक और एक वर्ष पर्यंत ध्यान में निश्चयनय की अपेक्षा से सभी आवश्यक क्रियायं परिपूर्ण हो चुकी हैं।
दूसरी बात यह है कि निश्चय आवश्यकरूप परमध्यान की सिद्धि के लिये ही व्यवहार आवश्यक क्रियाओं के करने का उपदेश है । यदि प्रयास के बिना वह ध्यान सिद्ध हो जाता है, तो महान् गुण ही है, न कि दोष । अथवा तीर्थकरदेव, भरत और बाहुबली महापुरुषों ने पूर्व जन्म में अनेक भवों में दीक्षा ले लेकर व्यवहार आवश्यकों को अतिशय रूप से किया था, इसीलिये इनको इस भव में किंचित् मात्र प्रयास से ही निश्चय क्रियाओं की सिद्धि और उसके फलभूत केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई है।
तात्पर्य यह निकला कि जो कोई मुमुक्षु महावत से अपने शरीर को विभूषित करके अपने शरीर से भी निःस्पृह होते प्रमाद को दूर कर स्वाध्याय, वंदना आदि कियाओं का यथाशक्ति समय-समय पर विधिवत् करते हैं, वे ही अप्रमत्त, अपूर्वकरण आदि अवस्था को प्राप्त कर सकल विमल, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य को प्राप्त करने वाले हो जाते हैं। ऐसा जानकर निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान, निश्चय आलोचना, निश्चय प्रायश्चित्त, निश्चय समाधि, परमभक्ति और निश्चय आवश्यक स्वरूप वीतराग-सम्यक्त्व और वीतराग-चारित्र से अविनाभूत