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नियमसार-प्राभूतम् लोगं वा” इति वचनात् असंख्यातलोकप्रमाणकर्माणि । एवमेव सम्यक्त्वोत्पत्तये लब्धयः पंचविधाः। उक्तं च श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवतिदेवैः
स्थ्यउपसमियविसोहो, वेसणपाउग्गकरणलद्धि य ।
चत्तारि वि सामण्णा, करणं सम्मत्तवारिसे ॥४॥ इमान् जीवभेदान् कर्मभेवान् लन्धिभेदांश्च ज्ञात्वा भवद्भिः तत्त्वज्ञैः स्वसमयपरसमयसम्बन्धियिवावश्चर्चा मिथः संलापो वावश्च न कर्तव्यः । अयमपदेशो निर्विकल्पावस्थायाः प्राप्तुकामस्य महायोगिनो न च सर्वमुनीश्वराणाम् ।
ननु स्वसमयपरसमयज्ञानं कर्तव्यं न वा इति चेत् ? कर्तव्यम्, उक्तं च न्यायशास्त्रेऽष्टसहस्त्रीनाम्नि
श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । विज्ञायेत ययैव स्वसमयपरसमयसद्भावः ॥
अड़तालीस हैं, या असंख्यात लोक प्रमाण भी भेद हो जाते हैं।" इस गाथासूत्र से कर्म के असंख्यात लोकप्रमाण भेद माने गये हैं।
इसी प्रकार सम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिये लब्धियाँ पाँच प्रकार की होती हैं। श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती महामुनि ने कहा भी है
क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पाँच लब्धियाँ हैं । इनमें से चार तो सामान्य हैं, भव्य-अभव्य सभी जीवों के हो सकती हैं, किंतु करणलन्धि विशेष है, वह सम्यक्त्व और चारित्र के लिये ही होती है।
___ इन जीव के भेदों को, कर्मों के भेदों को और लब्धि के भेदों को जानकर आप सभी तत्त्वज्ञानियों को स्वसमय और परसमय संबंधी विवाद, चर्चा, परस्पर में संलाप और वाद-शास्त्रार्य नहीं करना चाहिये । यह उपदेश निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त करने की इच्छावाले महायोगियों के लिये है, न कि सभी मुनीश्वरों के लिये।
शंका-स्वसमय और परसमय का ज्ञान करना चाहिये या नहीं ? समाधान-करना चाहिये । न्यायशास्त्र में कहा है--
एक अष्टसहस्री ही सुनना चाहिये, अन्य हजारों ग्रन्थों के सुनने से क्या ? जिससे कि स्वसमय और परसमयका सद्भाव जाना जाता है। १. गोम्मटसार कर्मकांड, गाया ७१ २. लब्धिसार, गाथा ३। ३. अष्टसहनी, परिमोद