________________
४५३
नियमसार-प्राभृतम् तात्पर्यमेतत् स्वपरसमयविज्ञानं कृत्वापि नानाविधजीवादीन ज्ञात्वा रागद्वेषमोहशत्रून निवार्य परमसाम्यसुधारसभावनया वीतरागनिर्विकल्पध्यानसिद्धयर्थ सर्वप्रकारेण मौनव्रतं गृहीत्वा निजसुद्धपरमात्मतत्वे मनो निधातव्यम् ।
मौनव्रतमादाय स्व स्थातव्यमिति प्रश्ने मत्युतरसन्त्यावार्य देवाःलक्ष्ण गिहिं एक्को, तस्स फलं अगुहवेइ सुजणत्ते । तह णाणी णाणपिणहि, भुंजेइ चइत्तु परतत्ति ॥१५७।।
एक्को णिहि लद्भूण-यथा कोऽपि एको जनो निधि रत्नभरितसुवर्णघटादिनिधानं लब्ध्वा । तस्स फलं सुजणत्ते अणुहवेइ-तस्य फलं नानाविधभोगोपभोगं सुजनत्वेन रहसि स्थाने स्थित्वाऽनुभवति । तह णाणी परतत्ति चइत्तु णाणणिहि भुंजेइ-तथैव ज्ञानी वीतरागसम्यक्त्वाविनाभाविवीतरागचारित्रपरिणतो महामुनिः परेषां निजात्मतत्वज्ञानशन्यजनानां तति समहं त्यक्त्वा स्वस्य परमालादलक्षणां ज्ञाननिधि भुङ्क्ते अनुभवति ।
यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि-स्वसमय और परसमय का विज्ञान करके भी अनेक प्रकार के जोब आदि को जानकर राग-द्वेष और मोह शत्रुओं को दूर कर परम समतारूपी अमृतरस की भावना से बीतराग निर्विकल्प ध्यान की सिद्धि के लिये सर्वप्रकार से मौनवत लेकर निज शुद्ध परमात्म तत्त्व में अपना मन स्थित करना चाहिये ॥१५६॥
मौनव्रत लेकर कहाँ रहना चाहिये ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं
अन्वयार्थ-(एकको णिहि लद्भूण ) एक कोई पुरुष निधि को प्राप्त कर (तस्स फलं सुजणत्ते अणुहवेइ) उसका फल एकांत में अनुभव करता है। (तह णाणी णाणणिहि परतत्ति चइत्तु भुंजेइ) उसी प्रकार से ज्ञानी मुनि ज्ञानविधि को परजनों का समूह छोड़कर अनुभव करते हैं।
टोका-जैसे कोई एक मनुष्य रत्नों से भरे हुए सुवर्ण घड़े आदि खजाने को प्राप्त कर उसका फल नानाविध भोगोपभोग एकांत स्थान में रहकर अनुभव करता है, वैसे ही जानी वीतराग सम्यक्त्व से अविनाभावी ऐसे वीतराग चारित्र से से परिणत हुए महामुनि निज आत्मज्ञान से शून्य ऐसे अन्य जनों के समुदाय को छोड़कर अपनी परमाह्लाद लक्षण ज्ञाननिधि का अनुभव करते हैं ।